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________________ १०० : जैन आचार सम्बन्ध निश्चित हो गया हो किन्तु विवाह न हुआ हो, जो अविवाहित कन्या के रूप मे ही हो, जिसका पति मर गया हो, जो वेश्या का व्यवसाय करती हो, जो अपने पति द्वारा छोड दी गई हो अथवा जिसने अपने पति को छोड दिया हो, जिसका पति पागल हो गया हो, जो अपनी दासी अथवा नौकरानी के रूप मे काम करती हो, इत्यादि । इन सब प्रकार की स्त्रियों के साथ स्वदार संतोप, जिसका कि निषेधात्मक रूप परदारविवर्जन है, का पूरा अर्थ न समझने के कारण अथवा भूल से मैथुनसेवन का प्रसंग उपस्थित होना अपरिगृहीता-गमन अतिचार है । जिसकिसी स्त्री के साथ कामोत्तेजक क्रीड़ा करना, जिस-किसी स्त्री का कामोत्तेजक आलिंगन करना, हस्तकर्म आदि कुचेष्टाएं करना, कृत्रिम साधनों द्वारा कामाचार का सेवन करना आदि कामवर्धक प्रवृत्तियाँ अनंगक्रीडा के अन्तर्गत आती है । कन्यादान मे पुण्य समझ कर अथवा रागादि के कारण दूसरों के लिए लड़केलड़कियाँ ढूढना, उनकी शादियां करना आदि कर्म परविवाहकरण अतिचार के अन्तर्गत हैं । कर्तव्यबुद्धि अथवा सहायताबुद्धि से वैसा करने मे कोई दोष नही । स्वसन्तति के विवाह आदि का दायित्व तो स्वदार संतोष से सम्बद्ध होने के कारण श्रावक पर स्वत. आ जाता है । अतएव अपने पुत्र-पुत्रियो की शादी आदि का समुचित प्रबन्ध करना श्रावक के चतुर्थं अणुव्रत स्वदार - सन्तोष की मर्यादा के ही अन्तर्गत है । पाँच इन्द्रियों मे से चक्षु और श्रोत्र के विषय रूप और शब्द को काम कहते हैं क्योकि इनसे कामना तो होती है किन्तु भोग नही होता । घ्राण, रसना व स्पर्शन के विषय
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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