SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ४४ ] को हानि नहीं पहुंचाते उन्हें अघातिकर्म कहते है। इस घाति और अघाति दोनों के चार चार भेद हैं। अर्थात् कर्म के मुख्य आठ भेद बताये गये हैं। १ ज्ञानावरणीयकर्म-इसको बाँधी हुई पट्टी की उपमा दी गई है अर्थात् जैसे आंख पर वाधी हुई पट्टीवाला मनुष्य किसी भी पदार्थ को नहीं देख सकता वैसे ही ज्ञानावरणीय कर्म" से यह आत्मा जब तक आच्छादित रहता है तव तक इसका ज्ञान गुण ढका रहता है। २ दर्शनावरणीयकर्म-इसको दरवान की उपमा दी गई है। जैसे राजा की मुलाकात करने मे दरबान विन्न कर्ता होता है, वैसे यह कर्म वस्तुतत्त्व को देखने में बाधक होता है। ३ मोहनीयकर्म-यह कर्म मदिरा समान है। जैसे मदिरा से मुग्ध-भान भूला मनुष्य यद्वा तद्वा वकता है, वैसे ही मोह से मस्त बना हुआ जीव कर्तव्याकर्तव्य को समझ नहीं सकता। ४ अंतरायकर्म--यह कर्म राजा के भंडारी समान है। जैसे राजा की इच्छा दान देने की होते हुए भी भंडारी कुछ न कुछ वहाना निकाल कर दान नहीं देने देता, वैसे ही यह कर्म शुभ कार्यों में विनरूप होता है। ५ वेदनीयकर्म-मनुप्य सुख-दुःख का जोअनुभव करता है वह इस कर्म के परिणाम स्वरूप करता है। सुख-सातावेदनीय
SR No.010196
Book TitleJagat aur Jain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri, Hiralal Duggad
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1940
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy