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________________ [ ४२ ] सव दर्शनकार ईश्वर के जो विशेषण बताते हैं, इसको राग-द्वेप रहित, सच्चिदानन्दमय, अमोही, अच्छेदी, अभेदी, अनाहारी, अकपायी-आदि विशेषणों सहित स्वीकार करते हैं। ऐसे विशेषणों युक्त ईश्वर जगत का कर्ता कैसे हो सकता है ? प्रथम वात तो यह है कि ईश्वर अशरीरी है। अशरीरी ईश्वर किसी भी वस्तु का कर्ता हो ही कैसे सकता है ? कदाचित उत्तर मे यह कहा जावे कि "इच्छा से"। तो इच्छा तो रागाधीन है और ईश्वर मे तो राग-द्वप का सर्वथा अभाव माना गया है। यदि ईश्वर मे भी राग-द्व प-इच्छा-रति-अरति आदि दुर्गुण माने जावें तो ईश्वर ही किस बात का ? यदि ईश्वर को जगत का कर्ता माना जावे तो जगत की आदि ठहरेगी। यदि जगत की आदि है तो जव जगत नहीं बना था तब क्या था ? यदि कहो कि अकेला ईश्वर ही था, तो अकेले "ईश्वर" का व्यवहार ही "वदतो व्याघात" जैसा है। ईश्वर" शब्द दूसरे किसी शब्द की अपेक्षा अवश्य रखता है। ईश्वर", तो किसका ईश्वर ? कहना ही पड़ेगा कि संसार की अपेक्षा "ईश्वर"। "संसार" है तो ईश्वर है तथा "ईश्वर है तो संसार है। दोनों शब्द सापेक्ष हैं इसलिये यह मानना आवश्यक है कि जगत और ईश्वर दोनों अनादि है। इनकी कोई आदि नहीं है। अनादि काल से यह व्यवहार चला आता है। इस विषय का जनदर्शन मे सन्मतितर्क, स्याद्वादरवाकर, अनेकान्तजयपताका, रत्नाकरावतारिका,
SR No.010196
Book TitleJagat aur Jain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri, Hiralal Duggad
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1940
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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