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________________ [ ३६ ] इस समय मुझे जैनधर्म की प्राचीनता के सम्बन्ध में इस लिये इतना उल्लेख करना पड़ा है कि भारतवर्ष के प्राचीन दर्शनो मे ही एक ऐसा विशेष तत्त्व रहा हुआ है जो आधुनिक विचारको की विचार सृष्टि मे देखने तक को नहीं मिलता। इसीलिये मेरा यह अनुरोध करना अनुचित नहीं होगा कि-मात्र भारत के ही नहीं परन्तु सारी दुनिया के विद्वानों को जैनदर्शन मे बताये हुए तत्त्वज्ञान का भी विशेषतः अभ्यास करना चाहिये। जैनतत्त्वज्ञान सजनो। मैं इस प्रसंग पर यह कहना चाहता हू कि-जैन तत्त्वज्ञान एक ऐसा तत्त्वज्ञान है, जिसमे से खोजने वाले को नई नई वस्तुओं की प्राप्ति होगी। इस तत्त्वज्ञान की उत्कृष्टता के संवन्ध में मात्र मैं इतना ही कहूगा कि जैनों की ऐसी मान्यता है---और जैनसिद्धान्तों मे प्रतिपादित है कि--- जैनधर्म का जो कुछ भी तत्त्वज्ञान है वह इसके तीर्थंकरों ने ही प्रकाशित किया हैं। और ये तीर्थकर इस तत्त्वज्ञान को तभी प्रकाशित करते हैं कि जब इन्हे कैवल्य-फेवलज्ञान प्राप्त होता है, "केवलज्ञान" अर्थात् भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालीन लोकालोक के समस्त पदार्थों का यथास्थित ज्ञान प्राप्त कराने वाला ज्ञान! ऐसा ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् जो तत्त्व का प्रकाश किया जावे उसमे असत्य की मात्रा का लेश भी नहीं
SR No.010196
Book TitleJagat aur Jain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri, Hiralal Duggad
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1940
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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