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________________ [ २४ ] । विचार शील विद्वानों को अपनी तरफ अधिक आकर्षित करनेवाला जैनधर्म का एक सिद्धान्त और भी है। वह यह है कि ईश्वर जगत का कर्ता नहीं है। वीतराग ईश्वर न तो किसी पर प्रसन्न ही होता है और न किसी पर अप्रसन्न होता है क्योंकि उसमे राग द्वेष का सर्वथा अभाव है। संसार चक्र से निर्लेप परम कृतार्थ ईश्वर को जगत कर्ता होने का क्या कारण ? प्रत्येक प्राणी के सुख दुख का आधार उसकी कार्य सत्ता पर है। सामान्य बुद्धि से ऐसा कहा जाता है कि जब संसार की सब वस्तुएँ किसी के बनाये बिना उत्पन्न नहीं होती तो जगत भी किसी ने बनाया होगा? लोगों की यह धारणा मात्र ही है क्योंकि सर्वथा राग, द्वेष, इच्छा आदि से रहित परमात्मा (ईश्वर) को जगत बनाने का कुछ भी कारण नहीं दीख पडता तथा ऐसे ईश्वर को जगत का कर्ता मानने से उसमें अनेक दोषारोप आ जाते हैं हा, एक प्रकार से ईश्वर को जगत कर्ता कह भी सकते हैं : "परमैश्वर्ययुक्तवाद मत आत्मैव वेश्वरः । स च कति निर्दोषः कर्तृवादो व्यवस्थितः ॥" (श्रीहरिभद्रसूरि) भावार्य-परमैश्वर्य युक्त होने से आत्मा ही ईश्वर माना जाता है और इसे कर्ता कहने मे दोप नहीं है क्योंकि आत्मा मे कर्तृवाद (कर्तापन) रहा हुआ है।
SR No.010196
Book TitleJagat aur Jain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri, Hiralal Duggad
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1940
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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