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________________ यंत्रों आदि के साधन नहीं थे उस समय तीर्थकसें वे अपने ज्ञान द्वारा बतलाया था। ऐसा अनुमान करने के बहुत कारण है कि अब वह समय आ रहा है जब कि जगत को जैनदर्शन के अनेक सिद्धान्तों को स्वीकार करना पड़ेगा। __ जीव और अजीव के सिवाय पुण्य-पाप (शुभ कर्म और अशुभ कर्म), आश्रव (आश्रीयते कर्म अनेन-आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध कराने वाले कारण), संवर (आते हुए कर्मों को रोकने के कारण ), वन्ध ( आत्मा के साथ कर्म का बन्ध होना), निर्जरा (कर्म का क्षय ) तथा मोक्ष (मुक्ति ) ये सात मिलकर कुल नव तत्त्व जैनदर्शन ने माने हैं। __ सारी जैन फिलोसोफी कर्म पर निर्भर है। आत्मा और कर्म इन दोनों का अनादि सम्बन्ध है। मूल स्वरूप से तो आत्मा सच्चिदानन्दमय है, परन्तु कर्मों के आवरण वशात् इसका मूल स्वरूप आच्छादित है। जैसे जैसे कर्मों का नाश होता जाता है वैसे वैसे इसका वास्तविक स्वरूप प्रकट होता जाता है तथा सर्वथा कर्मों का नाश होने से आत्म स्वरूप का साक्षात्कार अर्थात् मोक्ष के अक्षय सुख की प्राप्ति होती है। जीव जैसा जैसा कर्म करता है उसे वैसा वैसा फल भोगना पड़ता है, इसलिये जब तक कर्म का सर्वथा नाश न
SR No.010196
Book TitleJagat aur Jain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri, Hiralal Duggad
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1940
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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