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________________ जयशंकर 'प्रसाद' नागयज्ञ' आदि में बाहरी संवर्ष के साथ भीतरी संघर्ष भी उचित मात्रा में पाया जाता है। धीरे-धीरे नाटकीय कार्य-व्यापार, व्यक्ति-वैचित्र्य नाटकीय दृश्यों का सफल विधान भी उनके नाटकों में आता गया। प्रसाद की विकसित कला ने अपना नवीन रूप धारण किया। पश्चिमी और भारतीय नाट्य-कला के सफल, सुन्दर और उचित सामजस्य से 'प्रसाद' ने प्रसादान्त कला की स्थापना हिन्दी में की। 'प्रसाद' के नाटकों की कथावस्तु, रस, नायक, प्रतिनायक, शील श्रादि भारतीय नाव्य-शास्त्र की परिभाषा के अनुकूल हैं, दसरी ओर इनमें पश्चिमी शैली का भी पारिभाषिक रूप मिल जाता है। कथानकों में सन्धियाँ अर्थप्रकृतियाँ, पताका और प्रकरी कथावस्तु भी पाई जाती है और पश्चिमी ढङ्ग से उनका विकास पाँच विभागों में भी किया जा सकता है। प्रसाद के प्रायः सभी नायक भारतीय धीरोदात्त नायक के गुणों से सम्पन्न हैं। स्कन्दगुप्त, चन्द्रगुप्त मौर्य, जनमेजय, चन्द्रगुप्त आदि वीर, मधुर, धैर्यशाली, विनीत त्यागी, स्थिर, क्षमावान, दक्ष, शुचि, प्रियंवद, स्वाभिमानी, आत्म-श्लाघा से शून्य, युवा, उत्साही, तेजस्वी धार्मिक अभिजात-कुलोत्पन्न हैं। प्रतिनायक प्रचण्ड, मायावी, वीर, छली, अहङ्कारी, अात्म-प्रशंसायुक्त, चपल होने से धीरोद्धत हैं। ___एक अोर तो भारतीय रस-सिद्धान्त के अनुसार इनसे साधारणीकरण हो जाता है, दूसरी ओर पश्चिमी समीक्षानुसार प्रसाद के नायक-नायिकाओं में की भी उद्विग्नता होने से 'भ्यक्ति-वैचित्र्य' के नियम पर ये अन्तर्द्वन्द्व खरे उतरते हैं। चन्द्रगुप्त, चाणक्य , देवसेना, स्कन्दगुप. बिम्बसार सभी द्वन्द्व के भंवर में चक्कर काटते हैं-चरित्र की विभिन्नता की तरंगों में आलोड़ित होते हैं। अन्य साधारण पात्रों में तो व्यक्ति के वैचित्र्य या चरित्र-उत्थान-पतन की रंगीनी विशेष मात्रा में पाई जाती है। विजया, शर्वनाग, भटार्क, आम्भीक अजात शत्र आदि में यह स्पष्ट है। भारतीय दृष्टिकोण से नाटक में रस की प्रधानता होनी चाहिए और पश्चिमी दृष्टि से संघर्ष और कार्य-व्यापार की । 'प्रसाद' के नाटकों में वीर रस प्रधान और शृङ्गार सहायक रूप में आता है । अपनी प्रेयसी की मुसकान-भरी आँखों में आँखें डालकर वीर सदा से युद्ध-भूमि में बड़े-बड़े बलिदान करते रहे हैं, यह जीवन की वास्तविकता है । रस का पूर्ण निर्वाह नाटकों में हुआ है। साथ ही संघर्ष और कार्य-व्यापार भी इन नाटकों में सफल मात्रा में है। स्कन्द, चन्द्र, चन्द्रगुप्त, और ध्र व-स्वामिनी में तो 'प्रसाद' की यह साम
SR No.010195
Book TitleHindi Natakkar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaynath
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1952
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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