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________________ १४४ हिन्दी के नाटककार नाटक का दृश्य-विधान भी सदोष है। कहानी आगरा, दिल्ली, बीजापुर, रामगढ़, जंजीरा द्वीप, पूना, सितारा में फैली पड़ी है। प्रथम अङ्क का तीसरा दृश्य है बीजापुर का किला, जिसमें शाहजी को एक दीवार में चुना जा रहा है। चौथा दृश्य है-रामगढ़ में शिवाजी का मोरो पंत से परामर्श । पहले दृश्य का पट-परिवर्तन करते ही उसकी ईंटे आदि हटाने के लिए समय नहीं मिल सकता। रामगढ़ में परामर्श के समय शिवाजी का कुछ तो प्रभावशाली ठाट दिखाना ही चाहिए । वातावरण उपस्थित करने के लिए दृश्य विशाल बनाना ही चाहिए । तीसरे अङ्क की दृश्यावली देखिए-दूसरा दृश्य, पूना के महल में शाइस्ताखाँ । तीसरा दृश्य, आगरा का दीवाने खास । ये दोनों दृश्य विशाल हैं। आगे पीछे इनका निर्माण कम कठिनाई उपस्थित नहीं करता। वैसे गतिशीलता की दृष्टि से 'शिवा-साधना' बहुत सफल है। अभिनय की दृष्टि से 'स्वप्न-भंग' भी निर्बल है। पहला अक्क-पहला दृश्य दारा का महल, दूसरा दृश्य ताज के सामने का चबूतरा । दोनों दृश्यों का निर्माण असम्भव है। तीसरा दृश्य औरंगाबाद का राज-महल। इसमें स्वगतों की भी अरुचिकर भरमार है। मालिन, औरंगजेब, दारा, नादिरा, प्रकाश सभी को रोग है स्वगत-भाषण का और सो भी कोई उत्तेजित अवस्था में नहीं, चाँद, तारे, ताज का वर्णन तक करने में। कार्य-व्यापार की दृष्टि से कोई भी घटना रंगमंच पर नहीं होती, बल्कि कोई पात्र उसकी सूचना देता है। वर्णन करने से तो रसानुभूति नहीं हो सकती। न उसका रूपक ही खड़ा हो सकता है। घटनाएं घटती नहीं, केवल सूचित की जाती हैं, यह नाटक का दोष है। समाज और मानव की समस्या प्रेमीजी ने ऐतिहासिक नाटकों की ही विशेष प्रकार से रचना की-एक बड़ी संख्या में ऐतिहासिक नाटकों की मणियों का जगमग हार बनाकर हिन्दीवाणी को भेंट किया। उनमें अपनी लेखनी से जीवन के यथार्थवादी चित्र उतारे ही नहीं जा सकते । देश-प्रेम, बलिदान, किसी अादर्श के पीछे दीवाना रहना ही जीवन की पूर्ण तस्वीर नहीं है। ऐतिहासिक नाटकों में चरित्र के भीतरी परतों को खोलकर जीवन के प्रभावों का यथार्थ रूप उनमें रखा ही नहीं जा सकता। उनमें परम्परागत अनेक बन्धनों की तंग पगडण्डी पर ही प्रतिभा को वलना पड़ता है। समाज और मानव की यथार्थ तस्वीर देने के लिए भी प्रेमी जी ने सैफल चेष्टा की है वह चेष्टा ही नहीं, गौरवशाली लिद्ध भी है । मानव और समाज के चरित्र का उद्घाटन करने के लिए प्रेमी
SR No.010195
Book TitleHindi Natakkar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaynath
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1952
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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