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________________ संक्षिप्त इतिहास] इसी समय के श्वेताम्बर जैनाचार्य मेरतुङ्गविरचित संस्कृत प्रन्थ 'प्रबन्धचिन्तामणि' में कुछ दोहे यत्र तत्र दिये हुए हैं, जो अपभ्रंश-प्राकृतभाषा के हैं और हिन्दी जैसे जान पड़ते हैं। उनमें से कुछ को पण्डित नाथूरामजी प्रेमी ने निम्न प्रकार अपने 'हिन्दी जैन साहित्य के इतिहास' में उद्धृत किया है जा मति पाछइ संपजइ, सा मति पहिलो होइ , मुंजु भणइ मुणालवह, विघन न बेढह कोइ । जह यहु रावणु जाइयो, दहमुहु इक्कु सरीरु । जननि वियंभी चिन्तवा, कवन पियावा खीर। मुंजु भणइ मुणालवइ, जुम्वण गयट न मूरि। जइ सक्कर सयखंड थिय, तोइ स मीठी चूरि । इन पद्यों को समझने में अधिक कठिनाई नहीं होती, इसलिए उनको पुरानी हिन्दी कहना अनुचित नहीं है। पन्द्रहवीं शताब्दि के ऐसे कई ग्रन्थ मिलते हैं, जिनकी भाषा को हम पुरानी हिन्दी कह सकते हैं। प्रेमीजी ने 'गौतमरासा' 'ज्ञानपञ्चमी चउपई' और 'धर्मदत्तचरित्र' इसी श्रेणी के बताये हैं और उनके उद्धरण भी दिये हैं। उदाहरण के रूप में उनके निम्न लिखित पद्य देखिये वीर जिणेसर चरणकमल कमलाकयवासो , पणमकि पभणिसु सामि साल गोयमगुरुरासो । x x x x जिणवर सासणि भाछह साल, जासु न लम्भह अन्त भपात, पढा मुणहु पूजहु निसुनेहु, सिमपंचमिफल करियर एहु।
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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