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________________ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि बुद्धधर्म ही शुद्ध है, और देश-विदेशमे फूला फला महायान पन्थ तरह-तरहकी मिलावटके कारण अशुद्ध है; मै तो कहूंगा कि महायान सम्प्रदाय असली बौद्धधर्मका ही मानवताके अनुकूल विशाल समृद्ध स्वरूप है। गंगा नदीके उद्गमका माहात्म्य स्वीकारते हुए हम कभी नही कहेंगे कि गंगोत्रीके बादकी, हरद्वारके बादकी, या प्रयागके बादकी गंगा गंगा ही नहीं। गंगाका सच्चा माहात्म्य यही है कि गंगोत्रीसे लेकर गंगासागर तक उसके सुदीर्घ प्रवाहमे जितने भी जीवनप्रवाह आ मिले, उन सबको उसने अपनाया और उन्हें अपने नामरूप तक सब प्रदान किया। हम थोडे ही कहते हैं कि हमारा बचपनका जीवन ही हमारा शुद्ध जीवन था और बादका जीवन अशुद्ध जीवन है । वैदिक धर्म बढते-बढ़ते उसका सनातन धर्म हुआ । आगे जाकर वही हिन्दू धर्म हुआ। अब वह धीरे-धीरे भारतीय धर्म होने जा रहा है और जबतक वह विश्वधर्म नहीं हुआ है, उसमे अलम् बुद्धि आनेवाली नहीं है। इस भारतीय धर्ममें से अनेक पन्थ निकले। शाखाके रूपमें उनका जीवन-प्रवाह अलग बहने लगा और उनमें से अनेक फिरसे मूल स्रोतमें बा मिले। यही बात सब धर्मोकी है । और अब तो कमसे कम भारतमें, सब धर्म एकत्र आये हैं और आदान-प्रदान-द्वारा इनका समन्वय होनेवाला ही है। भारतमें बसे हुए सब धर्मोक और पन्थोंके बीच आदान-प्रदान चलता ही आया है । इसीलिए तो हमारा सांस्कृतिक जीवन इतना सहिष्णु और समृद्ध हुआ है। ___ मेरे मन इन सब पन्थोंमें सबसे अधिक शक्ति है भक्तिकी। भक्तिकी दीक्षा सब पन्थोंको लेनी पड़ी है। ऐसा एक भी धर्म या पन्थ नहीं है जो भक्तिसे मुक्त रहा है। 'ज्ञानादेव तु कैवल्यम्' कहनेवाले अद्वैतवादी ज्ञानमार्गी संन्यासी शंकराचार्यको भी कहना पड़ा, 'मोक्षकारणसामग्रयां भक्तिरेव गरीयसी।' फिर तो उन्हें भक्तिकी अपनी व्याख्या भी करनी पड़ी, 'स्वस्वरूपानुसंधानं भक्तिरित्यभिधीयते ।' ज्ञानमार्गी जैनियोंको भी भक्तिकी दिशा में अपना जीवन पन्थ बहाना ही पड़ा। सचमुच भक्ति ही जीवन है । नदीका सापरके तरफ़ बहना, जीवका शिवको ओर अखण्ड चलनेवाला आकर्षण, 'सोमा'का परिपुष्ट होकर 'भूमा में समा जाना, यही तो भक्ति है । जो बहता नहीं और बढ़ता नहीं वह जी नहीं सकता। और भक्ति तो अखंण्ड बढ़नेवाली रसमय प्रवृत्ति है । बहनेवाली नदियाँ जिस समुद्र में जाकर मिलती है, उस समुद्रको न बढ़ना है, न घटना है, तो भी उसमें ज्वारभाटाकी
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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