SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 220
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .(.१९१) खाते को देख न लेवे तो भला किसी को क्यावह तो उसीको दुखदाई होगी । अथवा किसी ने भीतर बैठ के मिसरी खाई तो फिर किसी को क्या सुनावे है और क्या अहसान करे है । भाई तेरा ही मुख मीठा होगा इति ॥ ऐसे ही शुभाशुभ कर्तव्य का विचार है क्योंकि जो शुभाशुभ कर्म करेंगे वे उन्हीं को सुख दुःख दायक होंगे। क्योंकि किये हुए कर्म न रूप को देख कर रीझते हैं, न धन की रिशवत (बड्डी) लेते हैं, और न ही बल से डरते हैं इस लिये १ प्रथम कर्म विपाक के कारण को जानना चाहिये यथा समवायाङ्ग में ३० महा मोहनी कर्म कहे हैं उनको करि जीव महा मोहनी कर्मों से बंध जाता है इस लिये प्रत्येक | पुरुष को चाहिये कि जहां तक हो उन से ||
SR No.010192
Book TitleGyandipika arthat Jaindyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParvati Sati
PublisherMaherchand Lakshmandas
Publication Year1907
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy