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________________ चौथा अध्याय ] बहिर्जगत्। mmmmmmmmmmmmmmmmmwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwmom ज्ञाता अपने अन्तर्जगत्का जो कुछ ( हाल ) जानता है, वह साक्षात्संबंधसे जानता है, अर्थात् उसे उसे जाननेके लिए किसी मध्यवर्ती वस्तुकी सहायता नहीं लेनी पड़ती । कारण, उस जगहपर ज्ञेयपदार्थ ज्ञाताकी अपनी ही एक अवस्था है। किन्तु बहिर्जगत्के विषयका ज्ञान उस प्रकारका नहीं है बहिर्जगत्की सब वस्तुएँ हमारे चक्षु-कर्ण आदि ज्ञानेन्द्रियोंको प्रकाश-शब्द आदिके द्वारा स्पन्दित करती हैं, और तब हमारी इन्द्रियोंकी वह स्पन्दनावस्था एक तरह मध्यस्थका काम करती है। उसीसे हममें उस उस वस्तुका ज्ञान उत्पन्न होता है । एक दृष्टान्तके द्वारा यह बात स्पष्ट हो सकती है। हम चन्द्र देखते हैं तब चंद्रमाके प्रकाशके द्वारा हमारी आँखोंमें चंद्रमाका जो प्रतिबिम्ब पड़ता है, वास्तवमें हम वही देखते हैं, और वह प्रतिबिम्ब ठीक चद्रमाका स्वरूप है या नहीं, यह बात अन्य उपायसे परीक्षा किये बिना ठीक ठीक नहीं कही जा सकती। ज्योतिपशास्त्रके द्वारा जाना गया है कि चंद्रमाकी जो घटती-बढ़ती हम देखते हैं, वह यथार्थ ह्रासवृद्धि नहीं है। चंद्रमा जितना बड़ा है, प्रतिदिन उतना ही बड़ा रहता है। किन्तु सूर्यका प्रकाश भिन्न भिन्न भावसे उसके ऊपर पड़ता है, इसीसे वह घटा-बढ़ा देख पड़ता है। इतने दूरकी चीजकी बात छोड़ देकर अतिनिकटकी वस्तुको देखना चाहिए। जैसे, हमारे हाथमें स्थित मिट्टीके टुकड़े के सम्बन्धमें हमारा ज्ञान कैसा है ? हम अपनी पाँच ज्ञानेन्द्रियोंके द्वारा जानते हैं कि उसका रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द किस प्रकारका है । किन्तु इन सब गुणोंके बीच, हम उसका आकार जैसा देखते हैं वह वैसा ही होनेपर भी उसके अन्य गुणोंको हम जैसा प्रत्यक्ष करते हैं वे ठीक उसीके अनुरूप है, यह बात नहीं कही जा सकती। उसके वर्णको हम शुक्लवर्ण प्रकाशमें धूसरवर्ण देखते हैं, अतएव उसमें अवश्य ही ऐसा कोई गुण है, जिसके मेलसे शुक्लवर्ण प्रकाश जब हमारे चक्षुको स्पंदित करता है तब हम धूसरवर्ण देखते हैं । किन्तु वह गुण ही धूसरवर्ण है, यह बात तब कैसे कही जायगी जब शुक्लकर्ण प्रकाश उसके साथ मिले विना वह वर्ण देख नहीं पड़ता । उस मृत्तिकाखण्डका रस कषाय ( कसैला ) है, किन्तु मेरी जीभमें जो कसैले रसके स्वादका अनुभव होता है उसे उत्पन्न करनेका गुण मृत्तिकाखण्डमें रहने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि वह गुण कसैला स्वाद है । इसके सिवा
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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