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________________ तीसरा अध्याय ] अन्तर्जगत् । ५१ कर कर्तव्याकर्तव्यका निश्चय किया जाता है । इसीसे समय समय पर इस सम्बन्धमें मतभेद भी होता है। ___ ऊपर कही गई क्रियाके सिवा अन्तर्जगत्की और एक श्रेणीकी क्रिया है, जिसे अनुभव कहा जाता है । आत्माकी जिस शक्तिके द्वारा इस श्रेणीकी 'क्रिया संपन्न होती है उसे अनुभवशक्ति कहते हैं। पहले ही कह दिया गया है कि अनुभव एक प्रकारका ज्ञान है। किन्तु अन्य प्रकारके ज्ञान और अनुभवमें भेद यह है कि अनुभव कार्यमें जाननेका विषय कोई तत्त्व या सत्य नहीं होता, वह ज्ञाताका अपना सुख या दुःख या अन्यरूप अवस्था होती है। ___ हम अपनी जिन सब अवस्थाओंका अनुभव करते हैं उनमें कुछ तो देहकी अवस्थाएँ हैं, जैसे भूख-प्यास-थकन, और कुछ मनकी अवस्थाएँ हैं, जैसे क्रोध-स्नेह इत्यादि । किन्तु पीछे कही गई अवस्थाएँ मनकी होने पर भी उनके द्वारा शरीरकी भी अवस्था बदल जाती है। हमारी अनुभूत अवस्थाओं या भावोंमें कुछ स्वार्थपर और कुछ परार्थपर हैं। जैसे भूख-प्यास आदि शरीरके भाव. और लोभ-क्रोध आदि मनके भाव स्वार्थपर हैं, और स्नेह-दया-भक्ति आदि भाव परार्थपर हैं। ___ संयत स्वार्थपर भावका कार्य बिल्कुल ही अशुभकर नहीं होता, और समय समय पर आत्मरक्षाके लिए वह प्रयोजनीय हो पड़ता है। ऐसे ही असंयत परार्थपर भावका कार्य भी सब जगह शुभकर नहीं होता; कभी कभी वह आत्माकी उन्नतिमें बाधक भी हो जाता है। किन्तु स्वार्थपर भावका संयम कठिन है, और उसके असंयत कार्य अनेक प्रकारसे अनिष्टजनक हो जाते हैं, इसी लिए वह हेय है। उधर परार्थपर भावके अत्यन्त बढ़नकी आशंका और उसके द्वारा अनिष्टकी संभावना बहुत थोड़ी है, इसी कारण वह आदरणीय है। स्वार्थपर भावों से काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर, ये छः हमारे शत्रु माने गये हैं । परार्थपर भाव सद्गुणके नामसे वर्णित हैं। स्वार्थपर भाव अगर एकदम मिट जायेंगे तो उससे आत्मरक्षामें विघ्न उपस्थित होगा, इस आशंकाका विशेष कारण नहीं है। क्योंकि उनके एकदम निर्मूल होनेकी संभावना बहुत थोड़ी है। अगर ऐसा हो भी तो अनिष्ट ,
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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