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________________ कर्मका उद्देश । सातवाँ अध्याय ] कर्मका उद्देश। - कर्मकी गति सुपथमुखी और ध्रुव है। कर्मके चरम उद्देश्य मुक्तिलाभकी साधनाके लिए पहलेहीसे संयत और साधु भावसे कर्म करना आवश्यक है। जगत्की अनन्त शक्तियोंके साथ अपनी क्षुद्र शक्तिका विरोध खड़ा करके, उनके ऊपर अपनी प्रधानता स्थापित करनेकी वृथा चेष्टा न करके, उनसे सख्य-संस्थापनपूर्वक उन्हींकी सहायतासे कर्तव्य-पालनकी चेष्टा करना ही कर्मीके लिए एकमात्र अच्छा उपाय है। किन्तु बहुत ही कम लोग उस अच्छे उपायको काममें लाते देखे जाते हैं। तो फिर क्या यह सृष्टि विडम्बनामूलक है, और मनुष्यका कर्म करना परमार्थलाभका विरोधी है ? यह बात भी नहीं कही जा सकती। क्योंकि ऐसा कहना मानों विश्वनियन्ताके नियम पर अश्रद्धा दिखाना है । असल बात यह है कि संसारसे कर्म और कर्मीकी गति क्रमशः बहुत धीरे धीरे सुपथकी ओर ही है। किन्तु धीरे धीरे होने पर भी वह ध्रुव अर्थात् निश्चितरूपसे सुपथमुखी है। समाप्त।
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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