SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 399
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सातवाँ अध्याय ] कर्मका उद्देश । mmswwwwwwwwwwwwwwwwwmi ह। कार्यसाधनके द्वारा जो फल होगा उसे पानेके लिए वह स्वभावसे ही इतना व्यग्र रहता है कि कार्यसाधनके उपायोंके को-रस उसकी विशेष दृष्टि नहीं रहती। निष्काम कर्मी केवल कर्तव्यके ज्ञानसे कममें प्रवृत्त होता है, अतएव उसकी असत् उपायोंको काममें लानेकी प्रवृत्ति कभी नहीं हो सकती। अनेक जगह ऐसा होनेकी संभावना है कि सकाम कर्माके मनमें असत् उपायोंके द्वारा सत्कर्मको सिद्ध करनेकी प्रवृत्ति हो, किन्तु निष्कामकर्मीके पक्षमें ऐसी घटना कभी नहीं हो सकती। इसके सिवा सकाम कमीक कौके साथ साथ अकर्मका होना भी संभव है। किन्तु निष्काम कर्मी समय समय पर निष्कर्मा हो सकता है, पर अकर्म नहीं कर सकता। अतएव सकाम कर्मीके कर्म देखनेमें दृढ़तायुक्त और उद्योगपूर्ण होने पर भी, यह बात नहीं स्वीकार की जा सकती कि वे परिणाममें पृथ्वीके लिए निष्काम कर्माके अनुद्धत और आडम्बरशून्य कमाँसे अधिक हितकर हैं । सकाम कर्मीक आडम्बरपूर्ण कामोंकी उपमा आँधी और मेघगर्जनसे युक्त वाके साथ दी जा सकती है, और निष्काम कर्माके धूमधामले खाली काम मृदु मंद पवन और धीरे धीरे गिरनेवाले धारापातके साथ तुलनीय हैं। एकके द्वारा पृथ्वीका हित और अहित दोनों बातें होती हैं, पर दुसरेके द्वारा हितके सिवा अहित होनेकी संभावना नहीं। इसके सिवा निष्काम कर्मीका दृष्टान्त संसार में केवल शुभकर ही नहीं है, अति आवश्यक भी है। मनुष्य स्वभावसे ही इतना स्वार्थपर है कि उसके सामने बीच बीचमें निष्काम कर्मीके निःस्वार्थ काम करनेका उज्ज्वल पथप्रदर्शक दृष्टान्त न रहे, तो सकाम कर्मियोंके स्वार्थ-संघर्षणसे संसार विपम संकटस्थल हो उठे। सकाम कर्म और निष्काम कर्म के बीच एक बहुत बड़ा अन्तर और भी है। सकाम कर्मी जो है, वह फलकी कामनासे कर्ममें प्रवृत्त होकर, उन शनियोंको, जो उस फलकी प्राप्तिमें बाधा डालनेवाली हैं, शत्रु समझता है और स्वार्थके द्वारा अच्छी तरह उत्तेजित तीव्रताके साथ उनका विरोध करने लग जाता है। यह सच है कि जड़जगत्की स्पष्ट प्रतीयमान अप्रतिहत शक्तिके साथ वैसा आचरण नहीं चल सकता, और कौशलके द्वारा वैसी शक्तियोंकी गति
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy