SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 397
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सातवाँ अध्याय ] कर्मका उद्देश। ___ अर्थात्, हे जनार्दन, हे केशव, अगर आपकी रायमें कमसे ज्ञान ही श्रेष्ठ है, तो फिर आप मुझे इस घोर कर्म (युद्ध) में क्यों नियुक्त करते हैं ? किन्तु इसका उत्तर भी गीतामें वहीं पर भगवान के इस वाक्यमें मिल जाता है कि न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्य पुरुषोऽश्नुते । न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥ -गीता ३४ अर्थात्, हे अर्जुन, कर्म न करनेसे मनुष्यको नैष्कर्म्यकी स्थिति (मुक्ति) नहीं मिलती ( कौको न करना कमत्याग नहीं है), और न केवल संन्यास ले लेनेसे ही सिद्धि मिल जाती है। मतलब यह कि नैष्कर्म्य-लाभके लिए कर्म करनेका प्रयोजन है। कर्मसे निष्कृति ( छुटकारा) मिलना ही कर्मका चरम उद्देश्य है, यह बात पहले सुनने में यद्यपि असंगतसी जान पड़ती है, लेकिन कुछ सोचने और ध्यान देकर देखनेसे मालूम हो जायगा कि यही यथार्थ तत्त्वकी बात है। यह सच है कि कर्म करते करते कर्म करनेकी इच्छा और शक्ति बढ़ती है, किन्तु वह चिकीर्षा ( करनकी इच्छा ) और कर्मशलता कर्मानुष्ठानका निकट-लक्ष्य और प्रथम उद्देश्य है, उसका दूर-लक्ष्य या चरम उद्देश्य नहीं है। हमारे अनिवार्य अभावपूरण और ज्ञानपिपासाकी तृप्तिके लिए कुछ काम अत्यन्त प्रयोजनीय हैं। उनके सम्पन्न होनेसे कुछ अभावोंकी पूर्ति और ज्ञानलाभ होनेके कारण धीरे धीरे काम करनेकी व्यग्रता घट जाती है, और जीव निवृत्तिमार्गका पथिक होता है । कर्म करनेमें होनेवाले अभ्यासके द्वारा जो जितनी जल्दी अपने आवश्यक कमाको समाप्त कर सकता है वह उतनी जल्दी नैष्कर्म्य या मुक्तिको पानेकी चिन्ता करनेके लिए समय पाता है। किन्तु नुन- के कर्तव्य कौंको न करके, मानव-हृदयकी कामनाको तृप्त किये बिना, साधारण मनुष्य (बुद्धचैतन्य आदि महापुरुषोंकी बात दूसरी है) निवृत्तिमार्गमें कभी नहीं चल सकता । मैंने मानव-जीवनका कोई भी काम नहीं किया, इस मर्मभेदी चिन्ता और अतृप्त वासनासे परिपूर्ण हृदय किसान चिन्ननमें सम्पूर्णरूपसे बाधा डालनेवाला होता है। इसी कारणसे हिन्दूशास्त्र में गृहस्थाश्रम-ग्रहण और धर्मकर्मानुष्ठानकी विधि है।
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy