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________________ पहला अध्याय [ ज्ञाता। ज्ञाता अर्थात् आत्मा देहयुक्त अवस्थामें, अपूर्ण ज्ञानमें अध्यास या भ्रमके कारण, अहंकारविशिष्ट और स्वतन्त्रताहीन रहता है । देहबन्धनसे मुक्त और पूर्ण ज्ञानको प्राप्त होनेपर आत्मा, अहंबुद्धिको छोड़कर ब्रह्मके साथ एकता, स्वाधीनता और परमानन्दको प्राप्त होगा। यही अनुमान संगत जान पड़ता है। इस बातके प्रमाणस्वरूप यह कहा जा सकता है कि हमारा 'मैं हूँ। यहं भाव-अर्थात् आत्मा और अनात्माका भेदज्ञान-और साथ ही साथ आत्माकी संकीर्णता जितना ही कम होती जाती है, और यथार्थ ज्ञानवृद्धिके साथ साथ आत्मा जितना ही अपने क्षुद्रभावको छोड़कर दूसरेको अपनानां और स्वार्थत्याग करना सीखता है, उतनी ही आत्माकी स्वाधीनता और आनन्द बढ़ता है, और जगत्के सच्चे मंगलकी वृद्धि होती है । देहधारीके लिए देहरक्षाके अनुरोधसे संपूर्ण स्वार्थत्याग संभव नहीं है, किन्तु परोपकारके लिए स्वार्थकी मात्राको घटाना सभीके लिए साध्य है । और, जो कोई जितना स्वार्थत्याग कर सकता है वह उतना ही अपना और जगत्का मंगल करने में समर्थ होता है।
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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