SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 378
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५४ ज्ञान और कर्म। [द्वितीय भाग सम्बन्धमें हमारा ज्ञान बहुत ही कम है। 'नेति नेति' (ऐसा नहीं है, ऐसा नहीं है ) कहकर ही हम ईश्वरके स्वरूपकी कल्पना करते हैं (१)। ईश्वरके स्वरूपको जानना मानव-शक्तिके परे है, यह कहकर आजकलके वैज्ञानिक लोग हमसे ईश्वरके जाननेकी निष्फल चेष्टासे निवृत्त होनेको कहते हैं। यद्यपि हम ईश्वरके स्वरूपको नहीं जान सकेंगे, तथापि ईश्वरको जाननेकी चेष्टासे हम बाज नहीं आसकते । वे कैसे हैं, उनका क्या रूप है-यह हम जानते हैं, ऐसा कहकर कोई कोई व्यग्रताके साथ ज्ञानमार्गका अनुसरण करते हुए " तत्त्वमसि' ( तुम ही वह हो) (२) इस सिद्धान्त पर पहुंचे हैं। कोई कोई लोग यह कहकर कि ज्ञानमार्ग दुरूह है, और ईश्वरका क्या रूप है-यह ठीक ठीक जान सकें या न जान सकें, हम उनके साथ मिलना चाहते हैं और भक्तिमार्गमें ईश्वरका अनुसरण करके उनके साथ तन्मयता प्राप्त कर सकनेसे ही मुक्तिका मिल जाना समझते हैं ( ३ )। किन्तु भक्त और ज्ञानी दोनों ही ईश्वरके साथ मिल जानेकी इच्छा करते हैं, और वह मिलनलाभकी इच्छा ही यथार्थ भक्ति कही जाती है। ईश्वर चाहे व्यक्तिभावापन्न हों, और चाहे विश्वरूप और विश्वकी अनन्त शक्ति ही हों, उनके साथ मिलनेकी जो मनुष्यकी इच्छा है उसका कारण यह है कि मनुष्य अपनी अपूर्णता और अभाव तथा उस अभावकी पूर्तिमें असमर्थताके कारण निरन्तर व्याकुल रहता है, और " विश्वका मूल जो अनन्त शक्ति है उसका आश्रय ग्रहण करनेसे उस अपूर्णताकी पूर्ति हो जायगी तथा वह अभाव दूर हो जायगा," इस अस्फुट ज्ञान या विश्वासके द्वारा प्रेरित हो रहा है, इसी लिए वह उस अनन्त शक्तिके साथ मिलनेकी इच्छा करता है। अत एव ईश्वरमें भक्ति होना मनुष्यके लिए स्वभावसिद्ध है । मगर हाँ, कुशिक्षा या कुसंस्कारके द्वारा ईश्वर-विश्वास नष्ट हो जानेसे हमारे हृदयसे वह भक्ति लुप्त हो जाती है। ईश्वरकी भक्ति जो मनुष्यके लिए शुभकर और कर्तव्य है, उसका कारण यह है कि ईश्वर पर भक्ति रहनेसे यह विश्वास कि जगत्की अनन्त शक्ति निरन्तर हमारी सहायता करती है और हमारे कार्योंको देखती रहती है, (१) बृहदारण्यक उपनिषद् ४।२।४ देखो। ( २ ) छान्दोग्य उपनिषद् ६८-१६ देखो । ( ३ ) गीताका बारहवाँ अध्याय देखो।
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy