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________________ जाँचवाँ अध्याय] राजनीतिसिद्ध कर्म । उसके कार्य-रूपमें परिणत होनेका एक कारण है। यदि शिक्षित समाजमें इसके विपरीत कथन प्रचलित हो, और अधिकांश सभ्य लोग यह बात कहें कि दुरुह या कठिन होनेपर भी सबको सब जगह परस्परके प्रति न्यायानुमोदित और सद्विवेचनासंगत व्यवहार करना चाहिए, और स्वार्थपरताका संयम ही सच्ची स्वार्थपरताका उपाय है, तो इस तरहके कार्यको कोई भी असाध्य न समझे और ऐसा करनेके लिए सभी लोग चेष्टा करें। इस सम्बन्धमें एक और भी आपत्ति हो सकती है। कोई कोई कह सकते हैं कि विजेताके साथ सद्भावकी कामना कायरपन और आत्माभिमानशून्यताका लक्षण है। अगर कोई आदमी केवल अपने इष्टसाधनकी या अनिष्टनिवारणकी आशासे विजेताकी शरणमें जाय, तो उसका वह कार्य भीरुतर और आत्माभिमानशून्यताका सूचक हो सकता है। किन्तु जहाँ यह हाल है कि विजेताका राज्य कुछ समयसे चला आ रहा है, और उसकी शासनप्रणालीमें दोष रहने पर भी अनेक गुण मौजूद हैं, तथा साधारणतः पराजित देशमें पहलेकी अपेक्षा बहुत अच्छी तरहसे शान्ति और न्याय-विचारकी प्रणाली संस्थापित हुई है, साथ ही विजेताके साथ राजा-प्रजाका सम्बन्ध तोड़ देना हितकर या न्यायसंगत नहीं है, वहाँ विजेताके साथ सद्भाव स्थापित करनेकी चेष्टा निन्दनीय न समझी जाकर आवश्यक कर्तव्य ही गिनी जायगी। सबके अन्तमें यह आपत्ति हो सकती है कि राजा और प्रजा दोनों ही अपने देश और अपनी जातिकी उन्नति करनेकी चेष्टा करते हैं। किन्तु जहाँ राजा और प्रजा दोनों भिन्न भिन्न देशके रहनेवाले हैं और दोनोंकी जाति भिन्न भिन्न है, वहाँ दोनोंके कार्यों में परस्पर कर्तव्यका विरोध अनिवार्य है। अतएव अगर दोनों जातियोंके मिलकर एक होनेकी संभावना नहीं हो, तो उनमें परस्पर सद्भाव स्थापित करनेकी चेष्टा वृथा है। यह कथन भी यथार्थ नहीं है। यह बात नहीं स्वीकार की जा सकती कि एक देशवासी एक जातीय राजा अपने राज्यमें रहनेवाली अन्य देश और अन्य जातिकी प्रजाकी उन्नति करनेका यत्न करे तो उसमें कर्तव्य विरोध अवश्य ही उपस्थित होगा। यह ठीक है कि इस तरहका कार्य कठिन है, और इस तरहके स्थलमें राजाका और प्रजाका अपने देश और अपनी जाति के प्रति अधिक अनुराग होना स्वाभाविक भी है। किन्तु राजा और प्रजा अगर न्यायपरायण और सद्विवेच
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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