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________________ चौथा अध्याय ] सामाजिक नीतिसिद्ध कर्म। ३१९ होती है। बदला लेकर अभाव पूर्ण करनेसे उत्तमर्ण (प्रण देनेवाला) अधमर्ण (ऋण लेनेवाला), प्रजा जमींदार, खरीदार बेंचनेवाला, प्रभु भृत्य इत्यादि अनेक प्रकारके सम्बन्ध उत्पन्न होते हैं। ऐसा भी हो सकता है कि दाता और लेनेवाला दोनोंही कोई खास आदमी या व्यक्तियोंका समूह या समिति हों; अथवा एक पक्ष कोई खास आदमी हो और दूसरा पक्ष व्यक्तियोंका समूह या समिति हो। प्राचीनकालके समाजमें और वर्तमान कालके पुराने ढंगके समाजमें, किसी खास आदमीके द्वारा किसी खास आदमीका अभाव पूर्ण होना ही प्रचलित प्रथा थी, और है। पहले इस बातकी मीमांसा हो जाना आवश्यक है कि उस तरहका कार्य कर्तव्य है कि नहीं। एक तरफ सभी देशों में क्या कवि और क्या नीतिज्ञ, सभीने दानकी बहुत बहुत प्रशंसा की है । इस देशके स्मृतिशास्त्र में भी दान की बड़ी महिमा और बड़ाई देख पड़ती है। हेमाद्रिकृत चतुवर्गचिन्तामणि ग्रन्थका दानखण्ड इस बातका प्रमाण है। इसके सिवा जनसाधारणमें दानकी प्रवृत्ति पैदा करनेके लिए अनेक प्रकारके श्लोक सिद्धान्तोंकी रचना हुई है। उनमेंसे एक यहाँ पर लिखा जाता है। बोधयन्ति न याचन्ते भिक्षाद्वारा गृहे गृहे। दीयतां दीयतां नित्यमदातुःफलमीदृशम् ॥ अर्थात् भिक्षुक लोग घर घर भिक्षा नहीं माँगते, बल्कि यह उपदेश देते हैं कि न देनेवालेकी ऐसी दशा होती है । इस लिए नित्य दान करते रहो। __ दूसरी तरफ अर्थतत्व और समाजतत्व (१) के ज्ञाता पण्डित कहते हैं कि अविवेचनापूवक दान करनेसे उसका फल अशुभ या हानिकारी होता है। जो लोग परिश्रम करके अपने और समाजके लिए प्रयोजनीय चीजें उत्पन्न या तैयार कर सकते, वे बैठे बैठे खानेको पाकर आलसी हो जाते हैं, दूसरेके परिश्रमका फल भोग करते हैं, और समाजको उस फलके भोगसे कुछ कुछ वंचित करते हैं। इस कारण विना विचार किये दान करनेसे आलस्यको आश्रय मिलता है। अयोग्य पात्र या कुपात्रको दान देना अवश्यही विधिविरुद्ध है। भगवान् कृष्णचंद्र कहते हैं (१) sugewick's Political Economy ग्रन्थ के शेष अध्यायको संबंध देखा।
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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