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________________ चौथा अध्याय ] सामाजिक नीतिसिद्ध कर्म ३०५ गत और कल्याणकर है । किन्तु इस तरह हस्तक्षेपसे धनी और मजदूरोंके झगड़ेका फैसला होना संभव नहीं जान पड़ता । किसी विशेष प्रकारके कार्यके लिए देशमें कितने मजदूरोंकी जरूरत है, और वैसा काम करने के लिए समर्थ कितने मजदूर देशमें हैं, इन दोनों प्रश्नोंके उत्तरके ऊपर उस श्रेणीके मजदूरोंकी मेहनतका मूल्य साधारणतः सभी जगह निर्भर रहता है । मजदूरों के बीच परस्पर प्रतियोगिता ( लाग - डाँट ) ही उस मूल्यको निर्द्धारित कर देती है । यह बात स्वाभाविक है कि धनी उस मूल्यसे अधिक कुछ भी नहीं देना चाहेगा । और, मजदूरोंकी आपसकी लाग-डॉट ही उनके लाभका विघ्न और कष्टका कारण हो उठती है । किसी बँधे हुए नियमके द्वारा उस कष्टका निवारण संभवपर नहीं है । कारण, मजदूरोंकी आपसकी लागsia सभी नियमोंकों नाँघकर उनके श्रमके मूल्यको कम निश्चित कर देगी । जान पड़ता है, उनके कष्टनिवारणका एक मात्र उपाय यही है कि धनीलोग सहृदयतासे काम लें, और अपने लाभकी लालसा या लोभको कुछ छोड़ दें, अर्थात् उस सच्ची स्वार्थपरताका ख्याल करें, जो परार्थपरता के विरूद्ध नहीं होती । पूँजीवाले धनी लोग अगर मजदूरोंसे कमसे कम मजदूरीमें काम करा सकने पर भी सहृदयतावश उनके कष्ट दूर करनेके लिए कुछ यत्न करें, तो वे मजदूर भी सुखी हो सकते हैं, और धनी लोगोंको भी कोई क्षति नहीं होगी । कुछ स्वच्छन्दतासे रहने पावें, अर्थात् पैसे कौड़ीसे तंग न रहें, तो मजदूर भी पहलेसे अधिक मेहनत कर सकें, और धनी पूँजीवालोंका काम अच्छी तरह कर सकें और यदि धनीलोग मजदूरोंके लिए अधिक खर्च करेंगे तो उसके बदले में अन्तको अच्छा काम पावेंगे । फिर धनियोंको जैसे सहृदयता आवश्यक है, वैसे ही मजदूरोंमें सौजन्य आवश्यक है, अर्थात् उन्हें भी धनियोंका काम भरसक यत्नके साथ करना उचित है । इस तरह सहृदयता और सौजन्यका लेनदेन होनेसे ही वह सहदयता स्थायी हो सकती है, नहीं तो पूँजीवाले प्रतिदान न पाकर और क्षति• ग्रस्त होकर अधिकदिन तक सहृदयता दिखायेंगे, या दिखा सकेंगे, ऐसी आशा नहीं की जासकती । असल बात यह है कि धनी और मजदूर दोनोंके लिए सद्भावकी स्थापना और दोनोंके हितसाधनका एक मात्र उपाय यही है कि दोनों पक्ष अपनी असंयत स्वार्थपरताको ज्ञान और विवेकके द्वारा संयत करें । ज्ञा०-२०
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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