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________________ २७८ ज्ञान और कर्म। [द्वितीय भाग करनेके लिए जिन नियमोंके अनुसार चलना उचित है, उन्हीं सब नियमोंकी समष्टि साधारण समाजनीति है। उनमेंसे निम्नलिखित कईएक नियम विशेषरूपसे उल्लेखयोग्य हैं। साधारण समाजनीति । १ किसीको अन्यका अनिष्ट न करना चाहिए । अगर किसीका गुरुतर अनिष्ट दूर करनेके लिए अनिष्टकारीका कुछ अनिष्ट करना बहुत ही आवश्यक हो तो वहाँ पर उतना सा अनिष्ट निषिद्ध नहीं है। इस विधिका प्रथम अंश सर्ववादिसंमत है, और दूसरे अंशके सम्बन्धमें, भी जान पड़ता है, किसीको कुछ विशेष आपत्ति न होगी। २ यथासाध्य अपना और अन्यका न्यायसंगत हित करना चाहिए; उसमें किसीका अहित हो तो उसके लिए आपत्ति न करनी चाहिए। यह बात अभी उतनी स्पष्ट नहीं हुई । इसे खुलासा करनेके लिए और . भी कुछ कहना आवश्यक है। प्रथमोक्त विधिका उद्देश्य है, अनिष्टनिवारण । और यह जो कहा गया कि खास खास जगह अनिष्टकर कार्य निषिद्ध नहीं है, यह भी गुरुतर अनिष्टके निवारणार्थ है । दूसरी विधिका उद्देश्य लोगोंको हितकर कार्यमें उत्तेजना देना है। जैसे अरिष्टनिवारणका प्रयोजन है, वैसे ही हितसाधनका भी प्रयोजन है । अगर हम अनिष्टकर कार्य न करके साथ ही हितकर कार्योंसे भी हाथ खीच लें, (कल्पना कर लो) निश्चेष्ट होकर बैठे रहें, तो अकार्य भी न होगा, और कार्य भी न होगा, और थोड़े दिनके बाद सब झंझट मिट जायगा, कार्य या अकार्य करनेके लिए कोई आदमी ही नहीं रहेगा। कुछ खाने-पीनेको न पाकर पृथ्वीपरसे मनुष्यजाति ही उठ जायगी। किन्तु ऐसा होनेकी संभावना नहीं है। कारण, हमारी आत्मरक्षाकी प्रवृत्ति इतनी प्रबल है कि परस्पर एक दूसरेका अनिष्ट करके भी हम अपनी अपनी रक्षाकी चेष्टा करते रहेंगे। आत्मरक्षाकी चेष्टाके साथ ही आत्मविनाशकी भी संभावना लगी रहती है। इस कारण ऊपर कही गई प्रवर्तक और निवर्तक, इन दोनों नीतियोंके आनुषंगिक प्रतिरोधका प्रयोजन है। जो कार्य अनिष्टकर है, वह केवल गुरुतर अरिष्टनिवारणके लिए छोड़कर और सब जगह अन्याय और निषिद्ध है। किन्तु जो कार्य हितकर है, उसे
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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