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________________ ર૭ર ज्ञान और कर्म। [द्वितीय भाग देख पड़ती। बल्कि यह बात अनिवार्य और उचित ही प्रतीत होती है। उनके शरीरका पालन-पोषण अवश्य ही मा-बापकी इच्छाके अनुसार होगा। उनकी मानसिक और नैतिक शिक्षा भी अवश्य ही मा-बापकी इच्छाके अनुसार होगी। तब समझमें नहीं आता कि यह बात कैसे संगत मान ली जाय कि उनकी धर्मशिक्षा ही, जो सर्वोपरि शिक्षा है, बाकी पड़ी रहेगी। और तरहकी शिक्षाएँ तो केवल इसी लोकके लिए प्रयोजनीय हैं, किन्तु, धर्म माननेसे, धर्मकी शिक्षा तो इस लोक और परलोक दोनोंके लिए प्रयोजनीय है। जो धर्मको मानते ही नहीं, उनके खयालसे धर्माशिक्षामें केवल इतना ही दोष है कि बालक-बालिकाओंको अकारण भ्रमकी शिक्षा दी जाती है। किन्तु उससे कोई क्षति नहीं हो सकती। कारण, बालक-बालिका बड़े होनेपर चाहें तो अपने अपने मतके अनुसार चल सकते हैं। और वे लोग अगर यह कहें कि धर्मके विषयमें भ्रमकी शिक्षा देना अन्याय है, तो वे ही बतावें, किस विषयकी शिक्षा भ्रमसे रहित है ? __ मनुष्य कदापि अभ्रान्त नहीं है। किसी किसी विषयमें, इस समय जो शिक्षा दी जाती है वह कुछ दिनके बाद भ्रमपूर्ण मानी जा सकती है। सिवा इसके बालक-बालिका जब माता-पिताके पास रहेंगे, तब धर्मके विषयमें उनको एकदम अशिक्षित रखना असंभव है। माता-पिता जिस धर्मको मानते हैं, वे भी उसी धर्मके अनुकूल काम करेंगे, और उनके लड़की-लड़के भी, नियमित रूपसे न सही, देख सुन करके ही, एक प्रकारसे उसी धर्मके संस्कारोंसे युक्त हो पड़ेंगे। धर्मशिक्षाके सम्बन्धमें अधिक बातें कहनेका प्रयोजन नहीं है। थोड़ी अवस्थामें बालक-बालिकाओंको अधिक सूक्ष्म धर्मतत्त्वकी शिक्षा देना असंगत भी है, और असाध्य भी है। धर्मके जो स्थूलतत्त्व हैं वे प्रायः सभी धर्मोंमे समान हैं। धर्मके स्थूलतत्त्वमें अधिकतर ईश्वर और परकालमें विश्वास और आत्मसंयमपूर्वक अच्छी राहमें चलना, ये ही दो बातें हैं। सबसे पहले इन्हीं दो । बातोंकी शिक्षा देना आवश्यक है। पुत्र-कन्याका विवाह । योग्य समयमें योग्य पात्री और पात्र ठीक करके पुत्र और कन्याका ब्याह कर देना पिता-माताका कर्तव्य है। कोई कोई यह सोच सकते हैं कि विवा
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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