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________________ २७० ज्ञान और कर्म। [द्वितीय भाग है। लेकिन वृथाका आत्माभिमान अपने दोषको नहीं देखने देता, बल्कि वह पराया दोष देखकर एक तरहके निकृष्ट सुखका अनुभव करता है । अपने दोषको आप देख सकनेका अभ्यास करनेसे, शीघ्र उस दोषका संशोधन होता है, और उस अपने दोषके लिए औरके आगे अप्रतिभ या लज्जित नहीं होना पड़ता । उक्त अभ्यासका और भी एक फल है। जिसकी विकृत मानस-दृष्टि खुद दोपका काम करनेके बाद, वह दोष देखने नहीं देती, और जिसकी सत्यके ऊपर अनास्था, अपना दोप देख पानेपर भी, उसे सहजमें स्वीकार नहीं करने देती, उसकी वह दोप देख पानेकी अक्षमता, और दोषको अस्वीकार कर सकनेका साहस दोषको छोड़नेके बारे में बाधाजनक हो उठता है। किन्तु जो मनुष्य अपनी मानस-दृष्टिको अपने दोष देखनेका अभ्यास कराता है, और जिसकी सत्यनिष्ठा दोष होनेपर उसे अस्वीकार नहीं करने देती, उसकी वह दोष देख पानेकी तीक्ष्ण दृष्टि, और यह भय कि दोष होनेपर सत्यके अनुरोधसे उसे अवश्य स्वीकार करना होगा, उसे दोष छोड़नेके लिए सर्वदा सतर्क रखता है। कहनेका मतलब यह है कि जो मनुष्य जितने सहजमें अपना दोष देख पाता है और उसे स्वीकार कर लेता है, वह उतने ही सहजमें उस दोषको छोड़कर काम कर सकता है। ४-अपने दोष पर कड़ी दृष्टि रखनेसे जैसे सुफल होता है, वैसे ही दूसरेके दोषपर कोमल दृष्टि रखनेसे भी सुफल होता है। पराये दोषको क्षमा करनेका अभ्यास करनेसे परार्थपरता बढ़ती है, और अपना चित्त उत्कर्षको प्राप्त करता है। ५-औरके अन्याय-व्यवहार या अहितचेष्टासे वृथा चिढ़ उठना या क्रोध करना ठीक नहीं है, बल्कि उसके कारणका पता लगाना आर यथासाध्य उसे दूर करनेकी चेष्टा करना ही उचित है । पुत्र कन्याको इस बातकी शिक्षा देना सब तरहसे पिता-माताका कर्तव्य है । यह शिक्षा पानेसे वे सदा सुखी रहेंगे। सभीको थोड़ा बहुत अन्यका अन्याय और अहितकर आचरण सहना पड़ता है। उसके लिए वृथा चिढ़नेसे याक्रोध करनेसे कोई लाभ नहीं, बालेक मन खराब होता है, और प्रतिहिंसाकी प्रवृत्ति उत्तेजित होकर तरह तरहकी बुराइयाँ पैदा कर सकती है। किन्तु जो हम स्थिर-धीर भावसे वैसे आचरणके कारणका पता लगा सकें, तो देख पावेंगे कि जबतक वह कारण मौजूद
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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