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________________ २५६ ज्ञान और कर्म। [द्वितीय भाग शीतोष्णमय जड़ जगत्में हम उसीको सबलशरीर कहते हैं जो रोगसे पीड़ित न होकर बिना क्लेशके गर्मी-सदाको सह सके। वैसे ही इस सुखदुःखमय संसारमें उसीको सबल मनवाला कहा जा सकता है जो समान भावसे सुखदुःख दोनोंको भोग सकता हो, जिसका मन दुखमें उद्विग्न न हो, और जो सुखमें स्पृहाशून्य रह सके । निरन्तर सुख किसीको नहीं मिलता, सभीको दुःख भोगना पड़ता है। अतएव वही शिक्षा यथार्थ शिक्षा है, जिससे शरीर और मनका ऐसा संगठन हो कि दुःखका बोझ उठानेमें कोई कष्ट न हो। सुखकी, अभिलाषा करनी हो तो उसी सुखकी अभिलाषा चाहिए जो कभी घटे नहीं और जिसमें दुःखकी कालिमा न मिली हो । पतिके न रहनेपर दूसरा पति मिलना संभव है, लेकिन पुत्र या कन्याके मर जाने पर उसके अभावकी पूर्ति कैसे होगी ? जिस राह पर जानेसे सब तरहके अभावोंकी पूर्ति हो, अर्थात् अभाव अभाव ही न जान पड़े, वही निवृतिमुखमार्ग, प्रेय न होने पर भी, श्रेय है। उसी मार्ग में जो लोग चलते हैं, वे खुद सुखी हैं, और अपने उज्ज्वल दृष्टान्तसे अन्यके दुःखभारको, एकदम भले ही न उतार सकें, कम अवश्य कर देते हैं। हिन्दूविधवाएँ ब्रह्मचर्य और संयमसे अपने शरीर और मनका संशोधन करके उसी निवृत्तिमार्गका अनुसरण करती हैं। उनको उस सुखसे फिराकर विपथमें चलानेकी चेष्टा करना न तो उन्हींके लिए अच्छा है, और न सर्वसाधारण समाजके लिए हितकर है । हिन्दूविधवाके दुःसह कष्टको स्मरण करके अन्तःकरण अवश्य अत्यन्त व्यथित होता है, किन्तु उसकी अलौकिक कष्टसहिष्णुता और असाधारण स्वार्थत्याग पर दृष्टि डालनेसे हृदय एकसाथ ही विस्मय और भक्तिसे परिपूर्ण हो उठता है। हिन्दूविधवाएँ ही संसारमें पतिप्रेमकी पराकाष्टा दिखा रही हैं। उनके उज्ज्वल चित्रने ही अनेक दुःख और अन्धकारसे परिपूर्ण हिन्दूके घरको प्रकाशित कर रक्खा है। उनका प्रकाशमान दृष्टान्त ही हिन्दू नरनारियोंकी जीवनयात्राका पथप्रदर्शक हो रहा है । हिन्दूविधवाका निष्काम पवित्र जीवन पृथ्वीका एक दुर्लभ पदार्थ है। ईश्वर करे, वह पृथ्वीपरसे कभी विलुप्त न हो। हिन्दूविधवाके चिरवैधव्यकी प्रथा हिन्दूसमाजका देवीमन्दिर है। हिन्दूसमाजमें संस्कारके लिए अनेक स्थान हैं, संस्कारकोंके लिए और बहुतसे काम पड़े हुए हैं।
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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