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________________ तीसरा अध्याय ] पारिवारिक नीतिसिद्ध कर्म । कारा पाकर उसे जो शान्ति और सुख मिलेगा वह जीवनसंग्राममें विजय पानेवालेकी सुख-शान्ति नहीं है, वह उस संग्राममें अशक होकर भागकर जो छुटकारा मिलता है उसके सिवा और कुछ नहीं हो सकता । अतएव विवाहबन्धन-विच्छेद निःपके लिए सुखकर या गौरवजनक नहीं है। उधर उसके द्वारा दोपी पक्षकी अवस्था अत्यन्त शोचनीय हो जाती है। पापके बोझसे दबा हुआ आदमी पुण्यात्माके साथ मिलकर रहनेसे किसी तरह कष्टसे साथीकी सहायतासे नवसागरके पार जानेमें समर्थ भी हो सकता है, किन्तु जो उसका साथी उसे बीचमें छोड़ दे तो अकेले उसके पार होनेका उपाय नहीं रह जाता। जिसके साथ सदा एकत्र रहनेका और सुखदुःखमें समभागी होनेका अंगीकार करके विवाहकी गाँठ बंधी थी, उसे ऐसी शोचनीय अवस्थामें त्याग करना बड़ी ही निठुराईका काम है । यह सच है कि प्रणयमें प्रतारणाकी यन्त्रणा बहुत तीव्र होती है, यह सच है कि पापका संसर्ग अतिभयानक है। किन्तु जिन्होंने परस्पर एक दूसरको सुमार्ग, रखनेका भार अपने अपने सिरपर लिया था, उनमेंसे एक आदमी अगर कुमार्गमे जाय, तो दूसरेका उसे छोड़कर निश्चिन्त होना उचित नहीं है। बल्कि उसका दोष दूर करनेकी उपयुक्त चेष्टा नहीं हुई, यह सोचकर संतप्त होना और उस दोपको कुछ-कुछ अपने कर्मका फल समझना ही उचित है। पार्थिव प्रेम प्रतिदान ( बदले ) की आकांक्षा रखता है । किन्तु जिसे प्रणय कहते हैं, वह स्वर्गीय पदार्थ, निष्काम और पवित्र है । वह पापके स्पर्शसे अपने कलुषित होनेका भय नहीं रखता, बल्कि सूर्यकिरणोंकी तरह अपने पवित्र तेजसे अपवित्रको पवित्र कर लेता है। पवित्रप्रेमका अमृतरस इतना गाढ़ा और मधुर है कि वह प्रतिहिंसा-दोष आदि कड़वे-तीखे रसोंको अपनी मधुरतामें एकदम डुबा दे सकता है। दाम्पत्यप्रेमका आदर्श भी इसी तरहका होना चाहिए । एक पक्षसे पवित्र प्रेमकी अमृतधारा निरन्तर बरसती रहनेसे, दूसरा पक्ष चाहे जितना नीरस हो उसे आई होना ही पड़ेगा, वह चाहे जितना कटु हो उसे मधुर होना ही पड़ेगा, वह चाहे जितना कलुपित हो उसे पवित्र होना ही पड़ेगा। ये सब बातें काल्पनिक नहीं हैं। सभी देशोम दाम्पत्यप्रेमका यही मधुमय पवित्र फल फलता रहता है, और अनेक लोगोंने अनेक स्थानों में उसके उज्ज्वल दृष्टान्त देखे हैं। भारतमें, हिन्दुसमाजमें और
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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