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________________ तीसरा अध्याय ] पारिवारिक नीतिसिद्ध कर्म । माननेका साहस वे कैसे कर सके ? इस प्रश्नके उत्तरमें अर्किनसाहबने कहा" उस समय मुझे मालूम पड़ रहा था कि भूखसे पीड़ित मेरे बच्चे मानों करुणस्वरमें मुझसे कह रहे हैं-पिता, इस सुयोगमें अगर आप हमारे खानेपीनेका कुछ सुभीता कर सकेंगे तो कर सकेंगे, नहीं तो कुछ न होगा।" (1) अतएव देखा जाता है कि थोड़ी अवस्थाके विधाहके विरुद्ध ऊपर जिन तीन प्रबल आपत्तियोंका उल्लेख हुआ था, उनमेंसे हरएकके साथसाथ, उसका संपूर्ण खण्डन न सही, उसके विपरीत युक्तियाँ भी हैं। थोड़ी अवस्थामें जैसे विवाहके गुरुत्वकी उपलब्धि करके उपयुक्त चिरसंगी या चिरसंगिनीके निर्वाचनकी क्षमता नहीं उत्पन्न होती, वैसे ही अधिक अवस्थामें होनेवाला निर्वाचन भ्रान्तिरहित ही होगा-यह भी निश्चित रूपसे कहा नहीं जासकता। अधिक यह है कि उस अधिक अवस्थाके निर्वाचनमें भूल होजाने पर उस अवस्थामें स्त्री और पुरुषके लिए अपनी अपनी प्रकृतिको परस्पर उपयोगी बनानेका समय नहीं रह जाता। थोड़ी अवस्थाके विवाहमें जैसे भावी पुत्रकन्याओंके सबलदेह और प्रबलमना होनेके बारेमें खटका बना रहता है, वैसे ही थोड़ी अवस्थामें ब्याह न कर देनेसे फिर वर्तमान बालक-बालिकाओंकी शारीरिक सुस्थता और मानसिक पवित्रताकी रक्षामें विघ्न पड़नेकी संभावना बनी रहती है। थोड़ी अवस्थामें ब्याह होनेसे जैसे लोग गिरिस्ती उठाने और परिवार पालनेके बोझसे दबकर यथासाध्य अपनी अपनी उन्नतिकी चेष्टा करने में असमर्थ होते हैं, वैसे ही उधर थोड़ी अवस्थामें ब्याह न कर देनसे स्वाधीन भले ही रहें, किन्तु उनमें आत्मोन्नतिके लिए चेष्टा भी अपेक्षाकृत अल्प ही रहती है। इसमें सन्देह नहीं कि युक्तिकी अपेक्षा दृष्टान्त प्रबलतर प्रमाण है । वर्तमान विषयमें अक्सर पाश्चात्य देशोंके दृष्टान्त ही दिखलाये जाते हैं। किन्तु यह सोचकर देखना आवश्यक है कि यूरोपकी उन्नत अवस्था और भारतकी हीन अवस्था कहाँतक विवाहविषयक प्रचलित प्रथाका फल है। बंगालमें जो बाल्यविवाह प्रचलित है, उसीकी प्रथा युक्त प्रदेश और पंजाब आदिमें भी प्रचलित है । किन्तु युक्तप्रदेश और पंजाब आदि प्रदेशोंका स्वास्थ्य बंगालके स्वास्थ्यकी तरह हीन नहीं है, और यूरोपके स्वास्थ्यके (१) Campbell's Lives of the Chancellors, Vol. TIIL P. 249 देखो। -
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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