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________________ तीसरा अध्याय ] पारिवारिक नीतिसिद्ध कर्म। २२९ उनके सहवासको इस तरह नियमबद्ध कर दे सकते हैं कि उससे केवल हितकर फल ही होगा, अहितकर फल न होगा। और, वैसा होने पर उनके सहवाससे परस्परके प्रति प्रेम-संचार और इन्द्रियसेवाके संयमकी शिक्षा दोनों ही फल प्राप्त होंगे। पक्षांतरमें, विवाहमें आधिक विलम्ब करनेसे उसका क्या फल होता है, वह भी विचारकर देख लेना चाहिए। स्त्री और पुरुषके परस्पर संसर्गकी चाह अक्सर चौदहवें या पंद्रहवें वर्षमें उद्दीपित होती है । उस प्रवृत्ति (चाह)को एक निर्दिष्ट पात्रमें न्यस्त करके निवृत्तिमुखी बनाना, और इन्द्रियचरितार्थका विधिसंगत और नियमित उपाय निकाल कर उसके अवैध और असंयत स्वेच्छाचारको रोकना, अगर विवाहका एक मुख्य उद्देश्य हे, तो जान पड़ता है, थोड़ी अवस्थामें व्याह कर देना ही उस उद्देश्यको पूर्ण-करनेका प्रशस्त मार्ग है । असाधारण पवित्र और संयतचित्त लोगोंकी बात मैं नहीं कहता, और वैसे लोग संख्या अधिक भी नहीं है, किन्तु साधारण लोगोंमें उक्त इन्द्रियसुखकी प्रवृत्ति पैदा होने पर, अगर शीघ्र ही उसके निर्दिष्ट-पात्रमुखी होनेकी व्यवस्था नहीं की जाय, तो वह काल्पनिक मनमाने व्यभिचारमें, अथवा वास्तविक अपवित्र या अस्वाभाविक चरितार्थता प्राप्त करने में लग जाती है। और, यह कहनेकी कोई आवश्यकता नहीं कि उस तरहका काल्पनिक या वास्तविक व्यभिचार दोनोंहीके देह और मनके लिए समानरूपसे अहितकर है। अगर कोई कहे कि जो प्रवृत्ति इतनी प्रबल है उसे एक निर्दिष्टपात्रमें अर्पित कर देनेसे ही वह संयत रहेगी, इसकी संभावना कहाँ है ? तो इसका उत्तर यह है कि किसी भोग्यवस्तुका अभाव अवश्य आकांक्षाको बढ़ाता है, लेकिन वह वस्तु मिल जानेपर फिर भोगकी लालसा बैसी तीव्र नहीं रहती । यह साधारणतः मनुष्यका स्वभावसिद्ध धर्म है। (३) बाल्यविवाह के सम्बन्धमें ऊपर कही गई तीसरी आपत्ति यह है कि बाल्यविवाह होनेसे थोड़ी ही अवस्थामें मनुष्यपर स्त्री-पुत्र-कन्या 'आदिके पालन-पोषणका बोझ पड़ जाता है, जिसके मारे वह अपनी उन्नतिके लिए यत्न करनेका अवसर नहीं पाता । किन्तु यह बात नहीं है कि इस बातके विरुद्ध भी कुछ कहनेकी बात न हो । विवाह होनेसे ही स्वामी अपनी स्त्रीके भरण-पोषणका भार अपने ऊपर लेनेके लिए
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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