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________________ तीसरा अध्याय । पारिवारिक नीतिसिद्ध कर्म । मनुष्यका परस्पर सम्बन्ध अनेक प्रकारका है। पृथ्वीपर अगर केवल एक ही मनुष्य रहता, तो उसका न्याय अन्याय कर्म केवल अपने और ईश्वरके सम्बन्धमें रहता, और नीतिशास्त्र अत्यन्त सहज होता। अथवा मनुष्य अगर संख्यामें एकसे अधिक होकर भी सम्बन्धौ परस्पर एक ही भावसे बंधे रहते, तो भी उनका परस्परके प्रति कर्तव्यअकर्तव्य कर्म एक ही प्रकारका होता। किन्तु वास्तवमें इस पृथ्वीपर मनुष्योंकी संख्या बहुत है, उनके तरह तरहके प्रकार भेद भी हैं, और वे अवस्थाभेदसे परस्पर अत्यन्त भिन्न भिन्न सम्बन्धोंमें बंधे हैं। पहले तो स्त्री और पुरुष ये मनुष्योंकी दो मूल-श्रेणियाँ हैं। उसके बाद वे अनेक प्रकृतिके हैं, अनेक देशोंके निवासी हैं, और उनकी अनेक जातियाँ हैं । उस पर भी वे भिन्न भिन्न धर्मावलम्बी हैं, और शिक्षित-अशिक्षित आदि भिन्न भिन्न अवस्थाओंको प्राप्त हैं। इन सब कारणोंसे मनुष्योंका परस्पर सम्बन्ध-जाल अति विचित्र और जटिल हो गया है, और उनके परस्पर कर्तव्य-अकर्तव्य कर्मका निर्णय करना भी अति दुरूह हो उठा है। पारिवारिक संबन्ध सब संबंधोंकी जड़ है। मनुष्यगण जिन भिन्न भिन्न संबन्धोंमें परस्पर बँधते हैं, उनमें पारिवारिक सम्बन्ध सबकी अपेक्षा घनिष्ठ है, और अन्य सब सम्बन्धोंके तथा मनुष्य. जातिके स्थायी होनेकी जड़ है। मनुष्य क्रमोन्नतिकी प्रथम अवस्थामें भिन्न भिन्न परिवारोंमें आबद्ध होता है । परिवारसमूह लेकर समाज बनता है।
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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