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________________ ज्ञान और कर्म। [द्वितीय भाग कि अनिष्टकारीका अनिष्ट करनेका अधिकार प्रजाकी अपेक्षा राजाके हाथमें अधिक रहना अवश्य ही स्वीकार करना होगा । कारण, राजाको वह अधिकार . होनेके कारण ही बहुत जगह प्रजावर्ग खुद अनिष्टकारीका अनिष्ट नहीं करते। वे अनिष्टका बदला चुकाने, या क्षति-पूर्ति पानेकी आशासे आश्वस्त होकर राजाके आगे या राजाके द्वारा स्थापित विचारालयमें जाकर प्रार्थना करते हैं । किन्तु राजाके अधिकारकी भी सीमा है। अतीत अनिष्टकी क्षतिपूर्ति और भावी अनिष्टकी निवृत्तिके लिए अनिष्टकारीका जितना अनिष्ट करना आवश्यक है, उससे अधिक अनिष्ट करनेका, न्यायसे, राजाको अधिकार नहीं है । अर्थात् दण्डनीय व्यक्तिको जो दण्ड दिया जाय वह यथासंभव उसके संशोधनके लिए उपयोगी हो; केवल निग्रह करनेकी दृष्टिसे दण्ड न दिया जाय । ३-आत्मरक्षाके लिए अनिष्टकारीसे असत्य बोलना कहाँतक न्यायसंगत है ?-यह एक कठिन प्रश्न है—जटिल समस्या है। एक दृष्टान्तके द्वारा यह स्पष्ट हो जायगा। अगर कोई आदमी ठग-डाकूके हाथमें पड़ जाय, और प्राण-रक्षाके लिए उसे धन देकर, या धन देनेका वादा करके, और उसे पकड़वाने के लिए चेष्टा न करनेकी प्रतिज्ञा करके, छुटकारा पावे, तो उस अंगीकार तथा प्रतिज्ञाका पालन कहाँतक करना चाहिए ? अगर ठग-डाकूको दिया हुआ धन फिर फेरनेके लिए अथवा जो धन देनेका वादा किया है उसे टालनेके लिए, वह व्यक्ति प्रतिज्ञाभंग करना चाहे, तो उसका वह कार्य न्यायानुमोदित नहीं कहा जा सकता । किसी किसी प्रसिद्ध पाश्चात्य नीतिशास्त्रज्ञ (१) के मतमें ऐसी जगह प्रतिज्ञाभंग करने में दोष नहीं है । कारण, सत्य बोलना और प्रतिज्ञा-पालन करना कर्तव्य होने पर भी, जब उस कर्तव्यताका मूल यह है कि हमारी बात पर निर्भर करके और लोग काम करते हैं और वह निर्भरयोग्य न होने पर समाज नहीं चल सकता, तब जो व्यक्ति समाजकी शान्तिके विरुद्ध हस्तक्षेप करता है और समाज जिसे शत्रु कह कर वर्जन करता है, वह व्यक्ति उस कर्तव्यताका फल नहीं भोग सकता, बल्कि उसे उस फलसे वञ्चित करना ही उचित है । इस मतके ऊपर अश्रद्धा न दिखाकर भी समीचीन कह कर इसे स्वीकार नहीं किया जा (1) Martineau's Types of Ethical Theory, Pt. II, Bk. I, ch. VI, 12, और Sidgewick's Methods of Ethics Bk.III, ch. VII देखो।
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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