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________________ २१० ज्ञान और कर्म। [द्वितीय भाग न्यायानुगामिता ही कर्तव्यताका नित्य और निश्चित लक्षण है । और बुद्धि या विवेक प्रायः सहज ही कह दे सकते हैं कि यह कर्म न्यायानुगत है कि नहीं। केवल संशय-स्थलमें, उपस्थित कर्ममें ऊपर कहा गया अन्य कोई सद्गुण है कि नहीं, यह विवेचनीय है। अगर हम देहसंयोगके कारण कुछ अवश्यपूरणीय अभावोंकी पूर्ति करनेके लिए वाध्य न होते, और अगर हममें पूर्ण ज्ञान रहता, तो हम अपने यथार्थ सुख, यथार्थ हित और यथार्थ स्वार्थको जान सकते और उनका अनुसरण भी कर सकते । तब स्वार्थ और परार्थमें, प्रवृत्ति और निवृत्तिमें, कोई विरोध नहीं रहता। उस अवस्थामें, जो अपने लिए सुखकर होता वही पराये लिए हितकर होता, जो स्वार्थपर होता वही परार्थपर होता, जो प्रवृत्ति-प्रेरित होता वही निवृत्तिसे अनुमोदित होता । किसीके साथ किसीका सामञ्जस्य करनेका प्रयोजन ही न रह जाता । सभी कार्य न्यायानुगत होते । सुखवादहितवाद आदि प्रवृत्तिवाद, निवृत्तिवाद और सामञ्जस्यवाद, ये तीनों मत न्यायवादके साथ एकत्र मिलित होते । सुदूरकालमें हमारी पूर्णावस्थामें, इन चारों मत-वादोंके मिलनेकी संभावना होनेसे ही, इस अपूर्णावस्थामें हम उसी मिलनका अस्पष्ट आभास पाकर कभी एकको और कभी दूसरेको यथार्थ मत कहकर मानते हैं। फिर वह मिलन अतिदूरस्थ होनेसे ही प्रथमोक्त तीनों मतोंके ऊपर भरोसा करनेमें मन ही मन शंकित होते हैं-खटका खाते हैं। पक्षान्तरमें, कर्तव्यता अर्थात् न्यायानुगामिता कर्मका मौलिक लक्षण होने पर भी-और वह विवेकके द्वारा निरूपित होने पर भी, हम इस अपूर्णअवस्थामें स्वार्थ और प्रवृत्तिके द्वारा इतना विमोहित होते हैं कि हमारा विवेक अनेक स्थलोंमें उस मौलिक नित्य-गुणको देख नहीं पाता, और सुखकारिता हितकारिता आदि अनित्य गुणोंके द्वारा कर्मकी कर्तव्यता ठीक करनेको वाध्य होता है । इस जगह एक बात कहना. आवश्यक है। यद्यपि न्यायवादही कर्तव्यता-निर्णय के सम्बन्धमें प्रशस्त मत है, और उसके अनुसार चलना ही श्रेय है, तथापि हमारी इस अपूर्ण अवस्थामें अनेक लोग ऐसे हैं जो उस मतके अनुसरण के अधिकारी नहीं है । जो विषय-वासनामें निरन्तर व्याकुल हैं, और बहिर्जगत्के स्थूल पदाथाँकी आलोचनाको ही बुद्धिका श्रेष्ठ कार्य और ज्ञानकी अन्तिम सीमा समझते हैं, उनकी वासना-विवर्जित आ.
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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