SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पहला अध्याय ] कर्त्ताकी स्वतंत्रता । कोई कोई कह सकते हैं कि यह सब सच होने पर भी कर्ताके अस्वतन्त्रतावादका एक अवश्य होनेवाला फल यह है कि मनुष्य अपने कर्मोका जिम्मेदार नहीं है-यह धारणा उत्पन्न होजाने पर दुष्कर्म करनेमें भय और सत्कर्म करनेमें आग्रह कम होजायगा। मगर यह आशंका अमूलक है। कर्ताकी स्वतन्त्रता न रहने पर भी जब कर्मका दोष-गुण बना रहा, और कर्ताको कर्माकर्मका शुभाशुभ फल कुछ समयतक भोग करना ही होगा, तथा अवस्थाके द्वारा वाध्य होकर कर्म करने पर भी उसका शुभाशुभ भोगनेके कारण आत्मप्रसाद और आत्मग्लानि भी अवश्य होगी, तो फिर दुष्कर्म करनेमें खौफ और सत्कर्म करने आग्रह कम होनेकी संभावना बहुत थोड़ी है। और एक बात है। कर्मके दोष-गुणसे कर्ता दोष-गुणका भागी नहीं होता, यह बात माननेसे जैसे दुष्कर्मके लिए होनेवाली आत्मग्लानि घटेगी, वैसे ही सत्कर्मसे होनेवाले आत्मगौरवका भी ह्रास होगा। कितने लोग उस आत्मग्लानिका कितना अनुभव करते हैं, वह कितने आदमियोंको सुमार्गमें ले आती है, और वह आत्मगौरव कितने लोगोंको उन्मत्त बनाकर कितना अनिष्ट पैदा करता है, यह सोचनेसे, जान पड़ता है, जमा-खर्चमें औसत हिसाबसे अस्वतन्त्रतावाद स्वतन्त्रवादकी अपेक्षा अधिक क्षति करनेवाला नहीं हो सकता। __कोई कोई लोग आशंका करते हैं कि अस्वतन्त्रतावादका और एक अशुभ फल है-मनुष्यको निश्चेष्ट कर देना। वे कहते हैं, कर्ताकी स्वतन्त्रता नहीं है, वह अवस्थाके द्वारा वाध्य होकर कर्म करता है, यह धारणा उत्पन्न होने पर हम कोई कर्म करनेकी चेष्टा नहीं करेंगे, क्रमशः निश्चेष्ट हो जायेंगे। किन्तु यह आशंका अमूलक है । अस्वतन्त्रतावाद यह बात नहीं कहता कि कर्ताकी चेष्टाका प्रयोजन नहीं है—कर्म आपहीसे होगा। वह केवल यही कहता है कि कर्ताकी इच्छा स्वाधीन नहीं है। वह इच्छा ही खुद अपना कारण नहीं है, किन्तु वह कर्ताके पूर्व-स्वभाव, पूर्व-शिक्षा और पारिपार्श्विक अवस्थाका फल है। वह पूर्व-स्वभाव, पूर्व शिक्षा और पारिपाश्विक अवस्था कारण-स्वरूप होकर अपना कार्य अवश्य करेगी, और उसके फलसे कर्ता उतनी चेष्टा किये विना नहीं रह सकता, जितनी कि उसको करनी होगी। फिर यह अस्वतन्त्रतावाद जब यह मानता है कि कर्ता अपने कर्माकर्मका शुभाशुभ फल
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy