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________________ पहला अध्याय] कर्ताकी स्वतंत्रता। सम्बन्धके जिन तीन मूल-तत्त्वोंका उल्लेख हुआ है, उनमेंसे प्रथम तत्त्वके अनुसार भी इसी तरहके सिद्धान्तमें पहुँचना होता है । मेरी इच्छा विना कारणके आप ही हुई, यह बात संगत नहीं मानी जा सकती। अस्वतन्त्रतावादके विरुद्ध आपत्ति । कर्ताके सम्बन्धमें, स्वतन्त्रतावादी लोग इसके विरुद्ध यह बात कहते हैं कि आत्मा जब प्रश्न करते ही उत्तर देता है कि मेरी इच्छा स्वाधीन है, तो आत्माका वही साक्ष्य-वाक्य ग्रहणयोग्य है। उसके बाद सोच-विचार कर वह जो कहता है कि मेरी इच्छा अनेक कारणोंके अधीन है, सो वह बात सिखाये पढ़ाये गवाहकी तरह अग्राह्य है। और, कार्य-कारण-सम्बन्ध-विषयक जिस तत्त्वका उल्लेख हुआ है, उसके अनुसार, जैसे विना कारणके कार्य नहीं होता, यह बात स्वीकार करनी होती है, वैसे ही फिर यह बात भी स्वीकार करनी होगी कि सब कारणोंका जो आदि कारण है वह अन्य किसी कारणका कार्य नहीं है । अतएव उस तरह मनुष्यकी इच्छा अन्य कार्यका कारण है, किन्तु वह खुद किसी कारणका कार्य नहीं है, यह बात कही जा सकती है। इस आपत्तिका खण्डन । ये सब तर्क युक्ति-सिद्ध नहीं जान पड़ते । आत्माका प्रथम उत्तर अविवेचना और अहंकारका फल है। दूसरा उत्तर विवेचनाका है, और वह यथार्थ अन्तर्दृष्टिके द्वारा प्राप्त है, और वही ठीक उत्तर है । इस जगह पर गीताका यह अमूल्य वाक्य स्मरण करना चाहिए कि प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥ (गीता ३।२७ ) अर्थात् प्रकृतिके गुण ही जगत्के सब कामोंको करते हैं। किन्तु अहंकारसे मूढ़ हो रहा आत्मा अपनेको ही उनका करनेवाला मानता है । कुछ सोचकर देखनेहीसे समझमें आ जायगा कि आत्माका प्रथम उत्तर सब समय ठीक नहीं उतरता । एक साधारण उदाहरण दूंगा । चन्द्रमाकी ओर देखकर अगर कोई आत्मासे पूछे कि मैंने क्या देखा? तो आत्मा उसी दम उत्तर देगा कि मैंने चन्द्रमाको देखा । किन्तु यह सब ही जानते हैं कि हम चन्द्रमाको नहीं देख पाते, चन्द्रमाका जो प्रतिबिम्ब हमारे आँखोंमें पड़ता
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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