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________________ ज्ञान और कर्म। प्रथम भाग श्रद्दधानः शुभां विद्यामाददीतावरादपि । अन्त्यादपि परं धर्म स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि ॥ [ २।२३८ ] __ अर्थात् श्रद्धालु आदमी निकृष्टसे भी शुभ विद्या और परमधर्म ग्रहण कर ले, और वैसे ही स्त्रीरत्नको भी नीचकुलसे ले लेना चाहिए। __शिक्षा सार्वभौमिक और उदार भावकी होनी चाहिए, इसमें कुछ संशय नहीं। किन्तु यह नियम शिक्षाकी ऊँची तहका नियम है; इसका प्रयोग निचली तहमें न करना चाहिए। शिक्षार्थी जो है वह निःसंग और निर्लिप्त भावसे संसारमें नहीं आता, और न रहता ही है । नियमित शिक्षाका आरंभ होनेके पहले ही प्रकृति उसको जातीय भाषा सिखा देती है, कुछ जातीय सस्कारों में दीक्षित कर देती है, और उसके हृदयमें कुछ जातीय भावोंका विकास कर देती है। उन संस्कारों और भावोंके उत्कृष्ट भागोंको बद्धमूल करने और बढ़ानेकी गरजसे प्रथम अवस्थामें उसी जातीय भाषाकी सहायतासे शिक्षाका काम चलाया जाता है तो उस शिक्षासे शीघ्र सुफल प्राप्त होता है। और, अगर वह न करके उन सब संस्कारों और भावोंको शिक्षार्थीके मनसे पोछ डालकर नवीन आदर्शके अनुसार उसे शिक्षा देनेकी चेष्टा की जाती है तो उससे शिक्षाका फल शीघ्र नहीं मिलता और परिणाममें सुफल फलनकी संभावना भी अधिक नहीं रहती। शिक्षाकी ऊँची तहमें, शिक्षार्थीको विजातीय भाषामें शिक्षित और विजातीय उच्च आदर्शके यथासंभव अनुकरणमें प्रवृत्त करना उचित है। जातीय भाव और स्वदेशानुराग उच्च सद्गुण हैं और उनके द्वारा पृथिबीका बहुत कुछ हित हुआ है। किन्तु जातीय भाव और स्वदेशानुरागका अन्य जाति और अन्य देशके प्रति विद्वेषके भावमें परिणत होना कभी उचित नहीं है। सच है कि प्राचीन ग्रीसमें जातीय भाव और स्वदेशानुरागने यही भाव धारण कर लिया था और ग्रीसकी प्रतिभाके बलसे पाश्चात्य साहित्य कुछ कुछ इसी भावसे रचा गया है। किन्तु प्राचीन ग्रीसके उस समयको पाश्चात्य जातियोंका बाल्यकाल अगर कहें तो कह सकते हैं । और बाल्यकालका झगड़ालू स्वभाव और परस्पर विद्वेषभाव प्रौढ अवस्थामें नहीं शोभा पाता! (३) शिक्षाके सामान । अब शिक्षाके सामानोंके बारेमें कुछ कहना आवश्यक है।
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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