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________________ ज्ञान और कर्म। [प्रथम भाग ___ यह नियम इससे पहले कहे गये नियमका एक प्रकारसे अनुसरण है। जिसका अभ्यास किया जाता है वह क्रमशः सहज हो आता है और उसे छोड़ देना कठिन हो जाता है । भ्रम एक बार हो जानेसे उसी घड़ी उसका संशोधन बहुत ही सहज होता है, लेकिन वारंवार वह भ्रम होते रहनेसे उसका अभ्यास हो जाता है और उसका संशोधन फिर उतना सहज नहीं होता। यह नियम केवल मानसिक शिक्षासे ही संबंध नहीं रखता, शारीरिक और नैतिक शिक्षा में भी यह अत्यन्त प्रयोजनीय नियम है। बहुत लोग समझते हैं कि साधारण भ्रम या सामान्य दोषके ऊपर दृष्टि रखनेका प्रयोजन नहीं है, केवल भारी भ्रम या गुरुतर दोषका संशोधन ही अत्यन्त आवश्यक है। ऐसा समझना बड़ी भूल है। सामान्य भ्रम और साधारण दोषके संशोधनसे निवृत्त रहनेमें, अर्थात् उसकी उपेक्षा करनेमें, गुरुतर भ्रम और दोष सहज ही हो जाते हैं, और उनका संशोधन कष्टसाध्य हो उठता है। (८) शिक्षाप्रणालीके सम्बन्धमें आठवीं बात यह है कि शिक्षा के लिए आत्मसंयम आवश्यक है। क्योंकि प्रवृत्तिको संयत न कर पानेसे, अन्य कर्तव्यपालन तो दूर रहे. शिक्षालाभके लिए जो समय देना होता है और श्रमस्वीकार करना होता है, शिक्षार्थी वह समय नहीं दे सकेगा और श्रम नहीं स्वीकार कर सकेगा। पाठाभ्यासके समय अन्य प्रवृत्तियाँ उसके मनको दूसरी ओर ले जायगी। कोई पाठक यह आशंका न करें कि पूर्वोक्त इस नियमसे कि शिक्षा सुखकर होना उचित है, इस बातका विरोध है । सच है कि शिक्षाको सुखकर बनावें तो शिक्षार्थीकी इच्छाके विरुद्ध काम करनेसे काम नहीं चलेगा। किन्तु आत्मसंयम जिसे कहते हैं वह अपनी इच्छाके विरुद्ध कार्य नहीं है। बल्कि कर्तव्यपालनके लिए कभी जिसमें अपनी इच्छाके विरुद्ध न जाना पड़े, असत् इच्छा और प्रवृत्तिका दमन कष्टकर न हो, उस अवस्थाकी प्राप्ति ही संयमशिक्षाका उद्देश्य है । न समझ कर पराई इच्छा और आज्ञाके अनुसार काम करना आत्मसंयम नहीं है; समझ कर अपनी इच्छासे अपनी प्रवृत्तिको दबानेका नाम आत्मसंयम है।
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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