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________________ छठा अध्याय ] ज्ञान-लाभके उपाय। १०५ और अभ्यासका फल है। मतलब यह कि नैतिक शिक्षा केवल ज्ञानविषयक नहीं है। वह प्रधानतः कर्मविषयक है । हाँ, नैतिक शिक्षा ज्ञानलाभके लिए अति प्रयोजनीय है। यद्यपि दुर्जन विद्यासे अलंकृत हो सकता है, लेकिन दुर्जनको यथार्थ ज्ञानकी प्राप्ति अक्सर नहीं होती। उसका कारण यह है कि ज्ञानलाभके लिए जिस यत्न और अभ्यासकी आवश्यकता है उसके लिए उपयोगी मनका शान्त भाव दुर्जनोंके नहीं रहता । वे तीक्ष्ण बुद्धि हो सकते हैं, पर धीरबुद्धि नहीं । वे सूक्ष्म बातको ग्रहणका सकते हैं, मगर किसी किसी विषयके स्थूल और यथार्थ अर्थको नहीं समझ सकते । वे कुतर्क करके कुटिल मार्गमें जा सकते हैं, लेकिन सुयुक्तिके द्वारा सरल सिद्धान्तमें नहीं पहुँच सकते । जहाँ कोई दोष नहीं है, वहाँ वे दोष देखते हैं, और जहाँ वास्तवमें दोष है वहाँ उसे उनकी वक्र दृष्टि नहीं देख पाती । जान पड़ता है, इसीलिए आर्यऋपि जिसे देखो उसे उपदेश नहीं देते थे। शान्त, सरल और दंभवर्जित हुए विना कोई उनका शिष्य नहीं हो सकता था, अर्थात् शिष्य पहले जबतक नैतिक शिक्षा नहीं प्राप्त कर लेता था तबतक उसे वे ज्ञानकी शिक्षा नहीं देते थे। और भी एक बात है। दुर्जन या दुर्नीतिपरायण पुरुषका जड़जगत्सम्बन्धी ज्ञान बढ़ता है तो उसके द्वारा संसारका अनेक प्रकारसे अनिष्ट हो सकता है। बस इसीलिए नैतिक शिक्षा सबसे पहले आवश्यक है। नैतिक शिक्षाके अभावसे हम लोगोंके अनेक कष्ट बढ़ जाते हैं, और ऐसे ही नीतिशिक्षाके द्वारा हमारे अनेक कष्टोंमें कमी हो सकती है। यह सच है कि नीतिशिक्षाके द्वारा हमारे दारिद्रय, रोग, अकालमृत्युका निवारण नहीं होता, क्योंकि उसके द्वारा खाने-पहननेके उपयोगी पदार्थ या रोगशान्तिकी दवा तैयार करनेकी क्षमता नहीं पैदा होती। किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि नीतिशिक्षा आलस्य-अपव्यय आदिसे उत्पन्न दारिश और अतिभोजन-इन्द्रियासक्ति आदिसे उत्पन्न रोग दूर करनेका उपाय है । सुनीतिसम्पन्न लोग यथासाध्य यत्न करके दारिद्य और रोगके निवारणमें निरन्तर तत्पर रहते हैं। और, दारिद्य, रोग, अकालमृत्यु, दैवदुर्घटना आदि जहाँपर अनिवार्य हैं, वहाँ पर उससे उत्पन्न दुःखके बोझको सहिष्णुताके साथ अपने सिर लादनेकी क्षमता नीतिशिक्षाके सिवा और किसी तरह नहीं उत्पन्न होती, और वह क्षमता इस सुख-दुःखमय संसारमें कुछ अल्पमूल्य सम्पत्ति नहीं है।
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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