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________________ चौथा अध्याय ] बहिर्जगत् । है। अतएव जगतके सब व्यापार जड़ और शक्तिके विचित्र मिलनका फल हैं। वह फल, पहले अनियमित गति-जैसे नीहारिका पुंजमें, उसके बाद नियमित गति-जैसे सौर जगत्में, और अन्तको गतिकी निवृत्ति है । वह गतिकी निवृत्ति विश्वव्यापी ईथरकी बाधासे उत्पन्न है, और समय पाकर अवश्य होनेवाली है । उस गतिकी निवृत्ति या विरामके बाद अविनाशी विश्वशक्तिके बलसे शक्तिका पुनरावर्तन और नवीन सृष्टि होती है (.)। यह तो हुई जड़की बात । जीवको भी जब तक पूर्ण ज्ञान नहीं होता तबतक पुनर्जन्म हो या न हो, और जीव चाहे जिस भावमें रहे, उसकी अज्ञताके कारण उसे दुःखका अनुभव अवश्य होगा और सुखलाभकी आकांक्षा भी बनी रहेगी, और इस कारण उसे गतिशील रहना पड़ेगा और कर्म भी करना होगा। परिणाममें जब उसे पूर्ण ज्ञान होगा, अर्थात् जगत्के आदिकारण ब्रह्मकी उपलब्धि होगी, तब उसके लिए कोई अभाव या आकांक्षा नहीं रह जायगी, और कर्म भी उसके लिए आवश्यक नहीं रह जायगा। अब जगत्में शुभाशुभके अस्तित्वके संबन्धमें दो-एक बातें कह कर यह अध्याय समाप्त किया जायगा। जगत्में शुभ और अशुभ दोनों ही हैं, यह बात अस्वीकार नहीं की जा सकती। सभी जीव सुख और दुःख दोनोंका अनुभव करते हैं । हरएक मनुष्य अन्तर्दृष्टिके द्वारा अपने अपने संबंधमें इस बातका प्रमाण पावेगा और बाहर अन्य जीवकी अवस्थाके ऊपर दृष्टि डालनेसे इस बातका प्रमाण मिलेगा कि उनका जीवन भी सुख-दुःखमय है। इसके सिवा हम स्थिर भावसे अपनी अपनी प्रकृतिकी पर्यालोचना करनेसे देख पाते हैं कि शुभाशुभका बीज हमारे भीतर निहित है। एक तरफ दया, उपकार करनेकी इच्छा, स्वार्थत्याग आदि अच्छी प्रवृत्तियाँ हमको अपनी और जगत्की भलाईके कामोंमें प्रवृत्त करती हैं, दूसरी तरफ क्रोध, द्वेष, स्वार्थपरता आदि बुरी प्रवृत्तियाँ हमको अपनी और दूसरेकी बुराईके काम करनेके लिए प्रबल भावसे उत्तेजित करती हैं। और, इन सब प्रवृत्तियोंकी प्ररोचनासे जैसे एक तरफ जीवोंके दुःख दूर करने और सुख उत्पन्न करनेके लिए तरह तरहके प्रयत्न होते हैं, वैसे ही दूसरी ( 9 ) Spencer's First Principles, Pt. II Chapters XXII, XXIII देखो।
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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