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________________ प्राचीन आचार्य परम्परा [ ४७ सिपाहियों ने हार को ले लिया और वारिषेण को पकड़ लिया तथा सम्राट श्रेणिक के सम्मुख उपस्थित कर दिया । वारिषेण बन्दी बना चुप रहा । "तुम्हारा यही धर्मात्मापन है ? तुम यही श्मशान में ध्यान करते हो ? मैं तो तुम्हें युवराज वनाना चाहता था पर अब तुम्हें यमराज को सौपूंगा।" श्रोणिक ने क्रोधित होकर कहा-"ले जाओ इसे और तलवार के एक ही वार से काम तमाम कर दो। भगवान ! ऐसा नालायक बेटा किसी को न दें।" . . "जल्लादों ने जो खोंचकर जोर से अपनी तलवारें वारिषेण की गर्दन पर मारी तो वे फूल की मालायें बन गईं।" यह बात जब राजा श्रोणिक ने सुनी तो वे वारिषेण से क्षमा मांगने लगे । पछतावा तो उन्हें पहले से ही था। "नहीं ! पिताजी !! आपने जो किया, वह ठीक ही था, अगर आप मुझे सजा न देते तो प्रजा के प्रतिनिधि आपको अन्यायी कहते।" वारिषेण ने कहा। श्रेणिक को लगा कि आज उनका मान-मन्दिर ढह गया और तब ही विद्युत् चोर ने कहा"अपराधी ये नहीं बल्कि मैं हूं। राजन् ! मैं विश्वास दिलाता हूं कि अब कभी अपराध नहीं करूंगा।"
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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