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________________ प्राचीन आचार्य परम्परा प्रत्युत्तरं में मुनिं मौन रहे । उन्होंने हाँ ना कुछ भी नहीं कहा । नागदत्ता ने इसे ही उनकी सहमति समझी। मुनि साधना करते ही रहे । ४६ ] आगे जाने पर, नागदत्ता को चोरों ने पकड़ लिया और वस्त्राभूषरण तथा विवाह की अन्य सामग्री के साथ उसकी बेटी को भी पकड़ लिया ।. "यह है दिगम्बर मुनि की निष्काम साधना और वीतरागता की ज्वलंत भावना । " सूरदत्त ने साथियों से कहा - "हमने मुनि को पीड़ित किया, तब भी उन्होंने कुछ नहीं कहा और इस स्त्री ने उनकी प्रार्थना की- भक्ति की तब भी कुछ नहीं कहा । उनकी दृष्टि में शत्रु-मित्र सब ही संबर हैं ।" तब ही नागदत्ता ने सूरदत्त से कहा - " भाई ! जरा तुम अपनी छुरी तो मुझे दे दो ताकि मैं अपनी कूख को चीरकर ही कुछ शान्ति पालू ं । तुम जिस मुनि की इतनी प्रशंसा कर रहे हो, वह और कोई नहीं, मेरा बेटा ही है, अगर वह अणु सा भी संकेत कर देता तो मेरी यह दुर्दशा. नहीं होती ।" "माँ, तुम हमें क्षमा करो ।" सूरदत्त ने कहा - "हमें नहीं मालूम था कि तुम उन महर्षि की मां हो। तुम्हारे सभी वस्त्राभूषण ले लो और विवाह की सामग्री तथा बेटी को भी, अन्यथा नरक में भी हमारी आत्मा को शान्ति नहीं मिलेगी ।" नागदत्ता ने गई वस्तुयें और बेटी को पाकर अपना सौभाग्य समझा तथा सम्मान पाकर अपने बेटे की पुनः वन्दना की । (६) जब बाप ने बेटे को मारने की आज्ञा दी । मगध सुन्दरी के प्रेम के आगे विद्य ुत् चोर झुक गया । वह श्रीकीति श्रेष्ठि के महल की ओर बढ़ा। मार्ग में विचारा - "जब स्त्री के क्षेत्र में साधक तक पराजित होते हैं, तब फिर मैं तो चोर हूं और फिर मेरी तो हार भी जीत अभी होगी ।" चोर ने चोरी तो कर ली पर वह हार की कान्ति को नहीं छिपा सका, जो उसके साथ चाँदनी सी चमक रही थी । सिपाहियों ने उससे रुकने को कहा पर वह भागा, उतना भागा, जितना भी उससे भागते बना, जब और भागते न बना तो श्मशान में वारिषेरण के पास हार को फेंक दिया और अदृश्य होकर ही अपने लिये निरापद समझा पर उसकी आत्मा उसे धिक्कार रही थी ।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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