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________________ आचार्य अकलंक स्वामी राष्ट्रकूट राजा शुभ रंग के मंत्री पुरुषोत्तम उनके पिता थे । निष्कलंक उनके भ्राता थे । उनकी माता का नाम जिनमति था । बाल वय में ही ब्रह्मचारी - जीवन जीने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हो चुके थे । अध्ययन के प्रति उनकी गहरी रुचि थी । दोनों भाइयों ने गुप्त रूप से बौद्ध मठ में तर्कशास्त्र का गम्भीर अध्ययन प्रारम्भ किया । एक दिन भेद खुल गया । अकलंक पलायन में सफलीभूत हो गया और निष्कलंक को वहीं मार दिया । आचार्य परम्परा में अकलंक प्रौढ़ दार्शनिक विद्वान् थे और जैन न्याय के प्रमुख व्यवस्थापक थे । उनके द्वारा निर्धारित प्रमाण शास्त्र की रूप रेखा उत्तरवर्ती जैनाचार्यों के लिए मार्ग दर्शक बनी है । आचार्य प्रकलंक वादकुशल भी थे । वह युग शास्त्रार्थ प्रधान था । एक ओर नालन्दा विश्वविद्यालय के बौद्धाचार्य धर्मपाल के शिष्य धर्मकीर्ति थे, जिन्होंने तर्कशास्त्र के पिता दिङ्नाग के दर्शन को शास्त्रार्थों के बल पर चमका दिया था, दूसरी ओर प्रभाकर, मंडन मिश्र, शंकराचार्य, भट्टजयंत और वाचस्पति मिश्र की चर्चा-परिचर्चायों से धर्मप्रधान भारतभूमि का वातावरण आन्दोलित था । आचार्य अकलंक भी इनसे पीछे नहीं रहे । उन्होंने अनेक विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ किए । मुख्यत: अकलंक बौद्धों के प्रतिद्वन्द्वी थे । प्राचार्य पदारोहण के बाद कलिंग नरेश हिमशीतल की सभा में बौद्ध विद्वानों के साथ उनका छह महीने तक शास्त्रार्थ हुवा | कहा जाता है कि बौद्ध दुर्जेय बने हुए थे । श्राचार्य आचार्यश्री के विषय में एक रोचक घटना का प्रसंग है, भिक्षु घट में तारादेवी की स्थापना करके शास्त्रार्थ करते थे । इससे वे अकलंक को यह रहस्य ज्ञात हो गया था । उनको शासन देवता ने आकर स्वप्न दिया तथा स्वप्न फल से जानकर प्रात:काल सभा में जाकर घड़ा फोड़ दिया, श्राचार्य विजय हुई | कलंक की
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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