SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राचार्य समंतभद्र स्वामी आचार्य समन्तभद्र दक्षिण के राजकुमार थे। वे तमिलनाडु उरगपुर नरेश के पुत्र थे। उनका नाम शक्ति वर्मा था । मुनि जीवन में प्रवेश पाकर समंतभद्र स्वामी मुनि संघ के नायक बने । कवित्व, गमकत्व, वादित्य, वाग्मित्व ये चार गुण उनके व्यक्तित्व के अलंकार थे। आप इन्हीं विरल गुणों के कारण काव्य लोक के उच्चतम अधिकारी, आगम मर्मज्ञ सतत शास्त्रार्थ प्रवृत्त और वाक्पटु बनकर विश्व में चमके । संस्कृत, प्राकृत, कन्नड़, तमिल आदि कई भाषाओं पर उनका अधिकार था भारतीय विद्या का कोई भी विषय संभवतः उनकी प्रतिभा से अस्पृष्ट नहीं रहा। वे स्याद्वाद के संजीवक आचार्य थे । उनका जीवन-स्याद्वाद दर्शन का जीवन था। उनकी अभिव्यक्ति स्याद्वाद की अभिव्यक्ति थी । वे जब भी बोलते अपने प्रत्येक वचन को स्याद्वाद की तुला से तौलते थे। उनके उत्तरवर्ती विद्वान् आचार्य ने उनको स्याद्वाद, विद्यापति, स्यावाद विद्यागुरु तथा स्याद्वाद अग्रणी का सम्बोधन देकर अपना मस्तक झुकाया। वे वाद कुशल आचार्य ही नहीं वाद रसिक आचार्य भी थे। भारत के सुप्रसिद्ध ज्ञान केन्द्रों में पहुंचकर भेरी ताडन पूर्वक वाद के लिए विद्वानों को आह्वान किया था। पाटलिपुत्र, वाराणसी, मालवा, पंजाब, कांचीपुर (कांजीवरम) उनके प्रमुख वाद क्षेत्र थे। आचार्य श्री प्रवल कष्ट सहिष्णु भी थे । मुनि जीवन में उन्हें एक बार भस्मक नामक व्याधि हो गई थी। इस व्याधि के कारण वे जो कुछ खाते वह अग्नि में पतित अन्नकण की तरह भष्म हो जाता था । भूख असह्य हो गई । कोई उपचार न देखकर उन्होंने समाधि की सोची। गुरु से. आदेश मांगा पर समाधि की स्वीकृति उन्हें न मिल सकी । समन्तभद्र को विवश होकर काँची के शिवालय का आश्रय लेना पड़ा और पुजारी बनकर रहना पड़ा। वहाँ देव प्रतिमा को अर्पित लगभग ४० सेर चढ़ावा उन्हें खाने को मिल जाता था। कुछ दिनों के बाद मधुर एवं पर्याप्त भोजन । से उनकी व्याधि शान्त होने लगी। नैवेद्य बचने लगा एक दिन यह भेद शिवकोटि के सामने खुला। राजा आश्चर्य चकित रह गया, इसे किसी भयंकर घटना का संकेत समझ शिवालय को राजा की सेना ने घेर लिया उस समय समन्तभद मन्दिर के अन्दर थे। जब उन्होंने सेना के द्वारा
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy