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________________ ५४२ ] दिगम्बर जैन साध महाराज के नाम से हम सबका आराधनीय वन चुका है। राग और विराग ये दो प्रबल अन्तःप्रेरणा के विना संभव नहीं हैं और जिनकी सुगति होनी होती है उन्हें बाह्य निमित्त भी शीघ्र मिल जाते हैं। १०८ मुनि श्री कोतिसागरजी महाराज से आपने प्रथम दो प्रतिमाएं ग्रहण कर अपने हृदय में विराग का जो बीजारोपण किया वह सन् १९७४ में पू. आचार्य कुथुसागरजी महाराज के चरण कमलों का आश्रय पाकर वट वृक्ष के रूप में स्फुटित हो उठा । आचार्यश्री ने आपको क्षुल्लक दीक्षा प्रदान करते हुए 'वर्धमानसागर' कहकर सम्बोधित किया। तभी से आप ज्ञान-ध्यान तप में अनुरक्त हो भव्यों को अपने सदुपदेश से संसार सागर से तार रहे हैं। इस वर्ष आपका चातुर्मास ईडर में हुआ जहां पर अनेक नवयुवकों ने अणुव्रत ग्रहण किये। क्षुल्लक श्री आदिसागरजी महाराज . .... . . . ... पंचत्व पर विजय पाने की उमंग पंचाराम जैन भिण्ड के मन में कैसे आई इसे कोई नहीं जानता। पर कहते हैं कि हलवाई का कार्य पिता श्री दुर्जनलाल जैन से मिला तो रस परिपाक की क्रिया देखकर तत्काल कर्म रस परिपाक का आभास हो गया और इनका मन कांप उठा । मन ही मन संसार से छुटकारा पाने के लिये उपाय सोचने लगे परन्तु भवितव्यता के विना कुछ भी संभव नहीं हो पाया। माता शिवसुन्दरी जिन धर्म की परमभक्त उदार मृदुभाषी महिला थीं तो भी पुत्रमोह वश दीक्षा जैसी बात उसे अप्रिय ही लगी । पुण्ययोग से एक दिन । वह भी आया जब असार संसार के रिश्तों की समझ का मोह भंग हुआ। २७ जून, ७८ को भवतारण: हार पू० आ० श्री कुन्थुसागरजी महाराज के चरणकमलों ने टूडला की भूमि को पवित्र किया और सं० १९८१ कार्तिक कृष्णा सप्तमी को जन्मे पंचाराम का भी लम्बा अंतराल समाप्त हुआ। विशाल जनसमुदाय के समक्ष गुरू ने सुयोग्य शिष्य को क्षुल्लक पद की जैनेश्वरी दीक्षा प्रदान कर मोक्ष महल की सीढ़ियों का दरवाजा खोल दिया। तभी से आप क्षुल्लक आदि सागर के रूप में इस कलिकाल में भटके हुए मोही जीवों की मोह निद्रा को भंग करते हुए निरन्जन बनने के सद् प्रयास में लगे हुए हैं।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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