SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राचीन आचार्य परम्परा और सुन्दरी नाम की कन्या को जन्म दिया। इस प्रकार एक सौ तीन पुत्र, पुत्रियों सहित भगवान वृषभदेव, देवों द्वारा लाये गये भोग पदार्थों का अनुभव करते हुए गृहस्थ जीवन व्यतीत कर रहे थे। भगवान द्वारा पुत्र पुत्रियों का विद्याध्ययन : भगवान वृषभदेव त्रिज्ञानधारी होने से स्वयं गुरु थे। किसी समय भगवान ब्राह्मी सुन्दरी, को गोद में लेकर उन्हें आशीर्वाद देकर चित में स्थित श्रुतदेवता को सुवर्णपट्ट पर स्थापित कर 'सिद्धनमः' मंगलाचरणपूर्वक दाहिने हाथ से 'अ आ आदि वर्णमाला लिखकर ब्राह्मी कुमारी को लिपि लिखने का एवं बायें हाथ से सुन्दरी को अनुक्रम के द्वारा इकाई, दहाई आदि अंक विद्या को लिखने का उपदेश दिया था। इसी प्रकार भगवान ने अपने भरत, बाहुबली आदि सभी पुत्रों को सभी. विद्याओं का अध्ययन कराया था। असि मषि आदि षट् क्रियाओं का उपदेश : काल प्रभाव से कल्पवृक्षों के शक्तिहीन हो जाने पर एवं बिना वोये धान्य के भी विरल हो जाने पर व्याकुल हुई प्रजा नाभिराज के पास गई । अनन्तर नाभिराज की आज्ञा से प्रजा भगवान वृषभदेव के पास आकर रक्षा की प्रार्थना करने लगी। प्रजा के दीन वचन सुनकर भगवान आदिनाथ अपने मन में सोचने लगे कि पूर्व-पश्चिम विदेह में जो स्थिति वर्तमान है वही स्थिति आज यहाँ प्रवृत्त करने योग्य है। उसीसे यह प्रजा जीवित रह सकती है । वहाँ जैसे असि, मषि आदि षट् कर्म हैं, क्षत्रिय आदि वर्ण व्यवस्था, ग्राम नगर आदि की रचना है वैसे ही यहाँ भी होना चाहिये । अनन्तर भगवान ने इन्द्र का स्मरण किया और स्मरण मात्र से इन्द्र ने आकर अयोध्यापुरी के बीच में जिनमन्दिर की रचना करके चारों दिशाओं में जिनमन्दिर बनाये । कौशल, अंग, वंग आदि देश, नगर बनाकर प्रजा को वसाकर प्रभु की आज्ञा से इन्द्र स्वर्ग को चला गया । भगवान ने प्रजा को असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छह कर्मों का उपदेश दिया। उस समय भगवान सरागी थे । क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्गों की स्थापना को और अनेकों पाप रहित आजीविका के उपाय बताये । इसीलिये भगवान युगादि पुरुष, ब्रह्मा, विश्वकर्मा, स्रष्टा, कृतयुग विधाता और प्रजापति आदि कहलाये। उस समय इन्द्र ने भगवान का साम्राज्य पद पर अभिषेक कर दिया।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy