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________________ ८] .. प्राचीन प्राचार्य: परम्परा वषभदेव का गर्भावतार . , . . .:.:: . . . . . . . भगवान् के गर्भ में आने के छह महीने पहले इन्द्र की आज्ञा से कुवेर ने माता के प्रांगन में साढ़े सात करोड़ रत्नों की वर्षा की थी। किसी दिन रात्रि के पिछले प्रहर में रानी मरुदेवी ने ऐरावत हाथी, शुभ्र वैल, हाथियों द्वारा स्वर्ण घंटों से अभिषिक्त लक्ष्मी, पुष्पमाला आदि सोलह स्वप्न देखे । प्रातः पतिदेव से स्वप्न का फल सुनकर अत्यन्त हर्षित हुई । उस समय अवसर्पिणी काल के सुषमा दुःषमा नामक तृतीय काल में चौरासी लाखपूर्व तीन वर्ष, आठ मास और एक पक्ष शेष रहने पर आषाढ़ कृष्ण द्वितीया के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में वज्रनाभि अहमिन्द्र देवायु का अन्त होनेपर सर्वार्थसिद्धि विमान से च्युत होकर मरुदेवी के गर्भ में अवतीर्ण हुए। उस समय इन्द्र ने आकर गर्भकल्याणक महोत्सव मनाया । इन्द्र की आज्ञा से श्री, ह्री आदि देवियाँ और दिक्कुमारियां माता की सेवा करते हुए काव्यगोष्ठी, सैद्धान्तिक चर्चाओं से और गूढ़ प्रश्नों से माता का मन अनुरंजित करने लगीं। वृषभदेव का जन्म महोत्सव : नव महीने व्यतीत होने पर माता मरुदेवी ने चैत्र कृष्ण नवमी के दिन सूर्योदय के समय मति-श्रुत-अवधि इन तीनों ज्ञान से सहित भगवान् को जन्म दिया । सारे विश्व में हर्ष की लहर दौड़ गई । इन्द्रों के आसन कम्पित होने से, कल्प वृक्षों से पुष्प वृष्टि होने से एवं चतुनिकाय देवों के यहाँ घंटा ध्वनि, शंखनादि आदि बाजों के वजने से भगवान् का जन्म हुआ है ऐसा समझकर सौधर्म इन्द्र, इन्द्राणी सहित ऐरावत हाथी पर चढ़कर नगर की प्रदक्षिणा करके भगवान् को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर १००८ कलशों से क्षीरसमुद्र के जल से भगवान् का जन्माभिषेक किया। अनन्तर वस्त्राभरणों से अलंकृत करके 'वृषभदेव' यह नाम रखा । इन्द्र अयोध्या में वापस आकर स्तुति, पूजा, तांडव नृत्य आदि करके वापस स्वस्थान को चले गये। वृषभदेव का विवाहोत्सव : - भगवान् के युवावस्था में प्रवेश करने पर महाराजा नाभिराज ने बड़े ही आदर से भगवान् की स्वीकृति प्राप्त कर इन्द्र की अनुमति से कच्छ, सुकच्छ राजाओं की बहन 'यशस्वती' 'सुनन्दा' के . साथ श्री वृषभदेव का विवाह सम्बन्ध कर दिया। .भरत चक्रवर्ती आदि का जन्म :: : यशस्वती देवी ने चैत्र कृष्ण नवमी के दिन भरत चक्रवर्ती को जन्म दिया, तथा क्रमशः निन्यान्वें पुत्र एवं ब्राह्मी कन्या को जन्म दिया। दूसरी सुनन्दा महादेवी ने कामदेव भगवान् बाहुवली
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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