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________________ ५१४ ] दिगम्बर जैन साधु दाम्पत्य जीवन का निर्वाह किया पर विवाह विराग में बाधक नहीं वना । पुत्र उत्पन्न मात्र हुआ और साथ ही अपनी मां को भी लेता गया । आपने घर और परिवार छोड़कर, शरीर और संसार से विरक्त होकर प्राजीवन ब्रह्मचारी रहने का निश्चय किया और श्री १०८ मुनि ने मिसागरजी से सातवीं प्रतिमा ले ली । पूज्य गणेशप्रसादजी, सहजानन्दजी वर्णी के सान्निध्य ने आपको आत्मबोध की दिशा में बढ़ने के लिये प्रेरित किया । विक्रम संवत् २०२३ में श्री १०८ मुनि जयसागरजी से आपने क्षुल्लक दीक्षा ले ली । आप सरलता और सादगी, सौजन्य और विद्वत्प्रेम के प्रतिनिधि हैं । पंडित द्यानतराय के शब्दों में आप आर्जव धर्म के प्रतिनिधि हैं । क्षुल्लकश्री विजयसागरजी महाराज बच्चों को सखा कहने वाले, उनसे घुलमिलकर उनकी बातचीत में रस लेनेवाले और उन्हें सहज सरल स्वभाव से धर्म की शिक्षा देने वाले क्षुल्लक हैं विजयसागरजी । आपका जन्म संवत् १९६८ में कोठिया में हुआ । आपका बचपन अतीव सुखमय बीता । १६ वर्ष की अवस्था में आपका विवाह हुआ । एक पुत्र भी है। * दस बरस बाद जब गृहिणी का स्वर्गवास हो गया तब आपके मन में विचार आया-यों. गृहस्थी में रहकर आत्महित करना सम्भव नहीं । गृहस्थी तो काजल की कोठरी है । इसमें मनुष्य कितना भी सावधान होकर क्यों न रहे । पर राग-द्वेष, क्षोभ लोभ, काम-क्रोध की रेखायें लग ही जाती हैं । यह विचार आते ही आपने बान्धवों और वैभव को छोड़ दिया । संवत् २०१७ में देवली में आपने मुनि श्री जयसागरजी से ब्रह्मचर्यं प्रतिमा ले ली । छह वर्ष वाद आपने क्षुल्लक दीक्षा भी पिड़ावा में ले ली । यद्यपि आपकी लौकिक धार्मिक शिक्षा लगभग नहीं ही हुई थी तथापि गीत भजनों और स्वाध्याय तथा सत्संग के माध्यम से आपने जो आत्मानुभूति पायी उसे धर्म और समाज के हित में वितरित करते रहते हैं । बड़ों को उपदेश देनेवाले तो बहुत हैं पर वे मानते नहीं हैं । जो मान सकते हैं उन्हें कोई उपदेश देता नहीं है । आपकी यह बात सोलह आने सही है ।.
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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