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________________ ५०४ ] दिगम्बर जैन साधु कुछ लोग आश्चर्य करने लगते हैं कि इस पंचम काल में जीव हीन संहनन से कर्म निर्जरा कहां तक कर पायेगा । अनत संसार में भटकते हुए जो अब तक नहीं कर पाया वह अब क्या कर पायेगा। उन्हें आचार्य का यह कथन याद रखना चाहिए वरिस-सहस्सेण पुरा जं कम्मं हणइ तेण काएण । तं संपहि वरिसेह हु णिज्जरयइ हीण संहणणे ॥ भावसंग्रह-१३१ । मोक्षमार्ग में दृढ़ता से बढ़ते हुए कदमों को देखकर पू० प्रा० श्री जयसागरजी म. ने कार्तिक बदी १४ सं० २०३६ हस्तिनापुर की पावन भूमि में आपको आचार्य पद प्रदान किया। स्व-पर कल्याण में निरत रहकर आपने अब तक दिल्ली, मेरठ, मुजफ्फरनगर, हस्तिनापुर, सम्मेदशिखर प्रामीन नगर सराय, रामपुर मनिहारान में चातुर्मास किये जहां अनेकों भटके हुए जीवों को समार्ग पर लगाकर धर्म की प्रभावना की । आपकी बहिन ने भी ( आयिका शांतिमती ) जिनशासन की महान् सेवा को । मुनि श्री वीरभूषणजी महाराज मुनिराज श्री का जन्म अगहन बदी ५ (पंचमी) सम्वत् १९७० में, मोजासोड़ा जिला भिन्ड म० प्र० में श्री बिहारीलालजी के परिवार में हुआ। आपकी मातु श्री का नाम राजमति देवी था आपके परिवार में तीन भाई एवं एक बहिन है जिसमें बड़े भाई का नाम चम्पाराम है जो अभी खास परिवार ग्राम सुकाण्ड जि० भिन्ड म० प्र० में रह रहा है । महाराज ने आत्म शुद्धि हेतु सम्पूर्ण भारत की यात्रा वंदना दीक्षा से पूर्व ही पूर्ण कर ली एवं बम्बई महानगर में रहते हुए भांडुक में अपनी सम्पत्ति से एक जिन मंदिर बनवाया। इसके लिए आपके प्रेरणा स्रोत थे प्राचार्य श्री निर्मलसागरजी महाराज । प्रारम्भ से ही प्रापके भाव मुनि दीक्षा ग्रहण करने के थे। इसका निमित्त श्रवण . RAGH
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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