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________________ दिगम्बर जैन साधु [ ५०३ आप महान तपस्वी हैं। कांथला ( मुजफ्फरनगर ) चातुर्मास के समय आपने ३१ दिन का उपवास किया। इसके बाद आपने अलवर चातुर्मास में भी ३१ दिनों का उपवास किया। १०-१० दिन के उपवास तो आप अनेक बार कर चुके हैं। आप महान तपस्वी हैं । अपना समय स्वाध्याय में लगाते हैं। आप अत्यन्त शान्त चित्त और सरल परिणामी हैं। मुनि श्री शांतिसागरजी महाराज - - -- -- - --- -- अचरज की बात थी कि सुखराम को भी सुख की तलाश थी । अलावडा (अलवर) की चौहद्दी में छोटेलाल जैन का व्यवसाय भी ठीक था और पत्नी चन्दन देवी का स्वभाव भी। सो वे भी यह न समझ सके कि उनके बेटे को कष्ट क्या है ? संसार में रचे-पचे वे दम्पत्ति जब भी पूछते सुखराम बात टाल जाता। चारों भाई-बहिनों ने भी दिल टटोला पर वे भी थाह न पा सके और विराग की तड़फन सुखराम के दिल में बढ़ती ही चली गई । १५ वर्ष की आयु में माता-पिता ने गृहस्थी के बंधन में बांध दिया जिसका निर्वाह चालीस वर्ष की आयु तक विरक्त भाव से किया। का "कामं कः सेवते सुधीः ।" आखिर उपशम की घड़ी आई। काम का सेवते सुधीः।" आ० श्री देशभूपणजी म. से जयपुर में पहली प्रतिमा के व्रत ग्रहण कर लिये तो लगा कि सच्चा सुख कुछ अधिक दूर नहीं है । वाराबंकी में पू० आ० श्री निर्मलसागरजी म. के चरण कमलों में बैठकर सप्तम प्रतिमा धारण कर ली। ज्येष्ठ शु०७ वी० सं० २४९७ में मुजफ्फर नगर में ( श्री निर्मलसागरजी ने ) इस सुपात्र को निर्ग्रन्थ दीक्षा देते हुए सुख की तलाश में भटकते सुखराम को सुखी बना दिया और आपका दीक्षा नाम 'शांतिसागर' रक्खा । श्रावण शु०२ वि० सं० १९७२ को जन्म लेते ही उसे जिस मंजिल की तलाश थी वह मिल गई । गुरू : आदेश से आपने पागम सम्मत घोर तपश्चरण करके कर्मों की असंख्यातगुणी निर्जरा कर अपनी आत्मा को पवित्र बना डाला।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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