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________________ दिगम्बर जैन साधु [ ४८३ गया । आपके जन्म के एक वर्ष पश्चात् आपके माता-पिता सपरिवार सिरसागंज (मैनपुरी) में आकर बस गये । जहां पर आपकी शिक्षा-दीक्षा हुई । कालान्तर में माता-पिता के देहावसान के बाद आप सपरिवार ( स्त्री-पुत्र-पुत्रियों सहित ) खड्गपुर ( प० बंगाल ) में आकर बस गये । परिवर्तन संसार का नियम है । काललब्धि पाकर फलटण में पू० आचार्य श्री विमलसागरजी म० के दर्शन करते ही आपकी मोहनिद्रा भंग हो गई और गुरु चरणों में आपने सप्तम प्रतिमा के व्रत प्रदान करने की प्रार्थना की। कार्तिक शुक्ल ११ वी० सं० २४८५ को आचार्य श्री ने व्रत प्रदान करते हुए आपका नाम मंजिल के अनुरूप 'शिवसागर' रखा । उसी वर्ष फाल्गुन शुक्ला २ को क्षुल्लक दीक्षा प्रदान कर 'ज्ञानसागर' नाम रखा । वैशाख शुक्ल १३ वी० सं० २४८७ को काम्पिल्या में आचार्य श्री ने आपको 'ऐलक दीक्षा प्रदान करते हुए आपका नाम वृषभसागर घोषित किया । कर्मयोग से स्वास्थ्य के कारण दीक्षच्छेद करना पड़ा और क्षुल्लक पद की दीक्षा लेनी पड़ी जहां आप पूर्वं नाम ज्ञानसागर के नाम से प्रसिद्ध हुए । चार वर्ष बाद पुनः ऐलक दीक्षा लेकर सन्मतिसागर नाम से रत्नत्रय की अराधना कर रहे हैं । क्षुल्लक श्री धर्मसागरजी महाराज घमंडीलालजी का जन्म सं० १९४१ में भिण्ड ( म०प्र० ) में हुवा था । आपकी माताजी का नाम श्री पानाबाई था। पिताजी का नाम श्री शोभालालजी था। बचपन में सामान्य शिक्षा प्राप्त करने के बाद आपने अपना व्यापार आदि कार्य सम्भाला । क्षुल्लक स्वरूपचन्दजी से सं० १९६५ में दूसरी प्रतिमा धारण की तथा मुनि विमलसागरजी से कोटा में सं० २००४ में दीक्षा ली। आप संघ में रहकर ग्रन्थों की नकल करने तथा जिनवाणी की सेवा में अपना समय लगाते थे । क्षुल्लक * ✡
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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