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________________ दिगम्बर जैन साधु [ ४८१ गांव से मुरैना में आकर रहने लगे और दुकान का कार्य करते रहे । पुण्योदय से श्री १०८ प्राचार्य विमलसागरजी महाराज संघ सहित मुरैना पधारे । इसी समय आपकी धर्मपत्नी ने आपसे कहा कि आचार्य श्री को आहार देने की मेरी इच्छा है । अगर आप आज्ञा देवें तो मैं अशुद्ध जल का त्याग ले लू। आप भी लीजिये । तब आप ( नत्थीलालजी ) ने कहा आपसे बने तो आहार दो हमसे कुछ नहीं बनता तव आपकी धर्मपत्नी ने अशुद्ध जल का त्याग कर दिया और ज्ञानाबाई के साथ आहार दिया। फिर आपकी धर्मपत्नी ने कहा अब हम अपने मकान पर आहार बनावेंगे आप महाराज को ले पावेंगे । तव दूसरे दिन घर पर आहार बनाया व आप महाराज को लेकर अपने घर पर आ गये और खड़े रहे । महाराज भी खड़े रहे, महाराज की निगाह आप पर पड़ी तो आपने कहा, महाराज मुझसे त्याग नहीं बनेगा। तब महाराज लौटने लगे। तब आपने सोचा कि मेरे घर से महाराज बिना आहार लिये लौट गये तो मेरा जैन कुल में उत्पन्न होना ही बेकार है । फिर क्या था, उसी समय आपके भाव जगे और उसी समय आपने अशुद्ध जल का त्याग किया व आचार्य श्री को आहार दिया। आहार देने के बाद भावना हुई कि अब तो त्याग करते जायेंगे। फिर पं० मक्खनलालजी की संगति में रहने लगे व शास्त्र अध्ययन करते रहे । सं० २०२१ में श्री १०८ शान्तिसागरजी महाराज से दूसरी प्रतिमा धारण की व वि० सं० २०२३ में एक मकान खरीदा और इसी वर्ष मुरैना में गजरथ पंचकल्याणक महोत्सव हुआ। इस अवसर पर श्री १०८ विमलसागरजी महाराज पधारे। इनसे आपने सातवीं प्रतिमा ली और इसी तरह आप त्याग की ओर बढ़ते गये। संसार को अस्थिर जानकर आपने मन में मुनिदीक्षा लेने की धारणा बना ली। सं० २०२४ में फागुन सुदी १२ को सोनागिरि गये वहां श्री १०८ मुनि निर्मलसागरजी से मुनिदीक्षा लेने का विचार किया। मगर श्री १०८ मुनि विमलसागरजी की आज्ञा न पाकर बाद में रेवाड़ी पहुंचे। वहां पर श्री १०८ मुनि विमलसागरजी महाराज से चेत सुदी १३ वि० सं० २०२५ को ऐलक दीक्षा ली और आपका श्री १०५ वीरसागर नामकरण हुआ । वहां से विहार करके श्री गुरुजी के साथ देहली पधारे । वहां पर चातुर्मास किया इसी अवसर पर सर्वप्रथम सावन सुदी ११ को केशलोंच हुना । केशलोंच के समय आप बड़े शान्तचित्त दिखलाई दे रहे थे । थोड़ी ही देर में आपने केश लोंच कर डाला । इस समय आपकी जय जयकार से आकाश गूंज उठा। चातुर्मास के बाद संघ के साथ साथ आप गाजियावाद पधारे । अगहन वदी १२ वि० सं० २०२५ को दूसरा केशलोंच हुआ उसी समय श्री गुरूजी से मुनिदीक्षा हेतु प्रार्थना की और उसी समय श्री १०८ मुनि विमलसागरजी
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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