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________________ प्राचीन आचार्य परम्परा कुलकरों की उत्पत्ति : इस तृतीय काल में पल्य का पाठवाँ भाग शेष रहने पर कल्पवृक्षों की सामर्थ्य घट जाने से, 'ज्योतिरंग' कल्पवृक्षों का प्रकाश अत्यन्त मन्द पड़ गया। किसी समय आषाढ़ सुदी पूर्णिमा के दिन सायंकाल में आकाश में पूर्व दिशा में उदित होता हुआ चन्द्र और पश्चिम दिशा में अस्त होता हुआ सूर्य दिखाई दिया। उस समय वहां सबसे अधिक तेजस्वी 'प्रतिश्रुति' नाम के कुलकर विद्यमान थे, उनकी आयु पल्य के दसवें भाग और ऊँचाई एक हजार आठ सौ धनुष थी। जन्मान्तर के संस्कार से उन्हें अवधिज्ञान प्रकट हो गया था। सूर्य चन्द्र को देखकर भयभीत हुए भोग भूमिज उनके पास आये तव उन्होंने कहा, हे भद्रपुरुषो ! ये सूर्य, चन्द्र, ग्रह, महाकांति वाले हमेशा आकाश में घूमते रहते हैं अभी तक इनका प्रकाश ज्योतिरंग कल्पवृक्ष से तिरोहित था, अब काल दोष से कल्पवृक्षों का प्रभाव मन्द पड़ने से ये दिखने लगे हैं तुम इनसे भय मत करो, प्रतिश्रुति कुलकर के इन वचनों को सुनकर सब लोग निर्भय हो गये और बहुत भक्ति से उनकी पूजा की। इनके बाद क्रमसे असंख्यात करोड़ वर्षों का अन्तराल बीत जाने पर 'सन्मति' नामक कुलकर हुए । एक समय रात्रि में तारागण दिखने लगे तब इन्होंने उनका भय दूर कर दिया। ऐसे ही 'क्षेमंकर' आदि कुलकर होते गये । तेरहवें कुलकर 'प्रसेनजित्' अपने माता-पिता से अकेले ही उत्पन्न हुए थे इनके पिता मरुदेव ने विवाह विधि से प्रधान कुल की कन्या से इनका विवाह किया था। अनन्तर अन्तिम चौदहवें कुलकर नाभिराज हुए, इन्होंने जन्मकाल में बालकों की नाल काटने की व्यवस्था की थी। ये सभी कुलकर अपने जातिस्मरण या अवधिज्ञान से प्रजा के हित का उपदेश देने से कुलकर और मनु आदि कहलाते थे । इनमें से आदि के पाँच कुलकरों ने प्रजा के अपराध में 'हा' इस दण्ड की व्यवस्था की थी। उनके आगे के पाँच कुलकरों ने 'हा' 'मा' इन दो दण्डों की व्यवस्था की और शेष कुलकरों ने 'हा' 'मा' और 'धिक्' ऐसे तीन दण्डों की व्यवस्था की थी। इन नाभिराज के समय कालदोप से मेघ गर्जन, इन्द्रधनुष, जलवृष्टि आदि होने से अनेकों अंकुर, धान्य पैदा हो गये एवं कल्पवृक्षों का अभाव हो गया इससे व्याकुल हुई प्रजा महाराज नाभिराज की शरण में आई हे नाथ ! मनवांछित फल देने वाले तथा कल्पान्त काल तक नहीं भुलाने के योग्य कल्पवृक्षों के बिना अब हम पुण्य हीन अनाथ लोग किस प्रकार जीवित रहें ? हे देव ! इनमें क्या
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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